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कविता : कुछ रिश्तों के बहाने से

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

रिश्तों को,
जिन्दगी की इस हद्द के बाद
मैं समझने लगा हूँ कि
यहाँ अपना-पराया
कुछ नही होता है
यह केवल एक भ्रम है
और जिसमें
केवल मैं,
तुम
हम सभी घिरे हैं कमोबेश

केवल
सन्दर्भ बदलते हैं
वक्त के साथ
और हम तुम वहीं होते हैं
घिरे हुए
और कुछ नही बदलता है यहाँ
अलबत्ता
कुछ देर मैं तुम्हारी भूमिका निभा लेता हूँ
या तुम मेरी
लेकिन नियति ने
इससे ज्यादा नही छोड़ी है
गिरह अपनी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 12-दिसम्बर-2011 / समय : 10:53 रात्रि / घर