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कविता : मशरूम में सिमटा हुआ आदमी

मंगलवार, 21 जून 2011

शरूहफियाँ,
आदमी को सिखाती हैं
खुद में ही सिमटे रहने
और सिमटते रहना
किसी ऊन के गट्टे की तरह
और गढ़ना दुनिया अपने इर्द-गिर्द
जो भी आस-पास है
उसे समेटे रहना
सिर्फ अपने लिये

किसी दिन,
यह मशरूहफियाँ
बदल के रख देती हैं
इस सिमटे हुए आदमी को
किसी मशरुम में
और वो कटने लगता है इन्सानों से
पाया जाने लगता है किसी कोने में
कुकरमुत्ते की तरह
एकाकी
तकरीबन शेष दुनिया से अलग-थलग
या अपनी ही प्रजाति में
बेतरतीब उगी हुई कॉलोनी सा
लगभग बेमतलब......
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 28-05-2011 /समय : 01:45 दोपहर / लंच ब्रेक

नज़्म : सूरज संग तकादा आया

बुधवार, 8 जून 2011

जब भी दर्द बटाँ दुनिया में
मेरे हिस्से ज्यादा आया

सबने सबकी सुध ले ली
अपने काम इरादा आया

सबको मिला वही जो चाहा
मेरे हक़ में वादा आया

कर्ज रात का आँखों में ले
सूरज संग तकादा आया

दुनियादारी लगी तमाशा
तब जाना क्यूं नादाँ आया

चेहरे पुते बहुत थे लेकिन
काम यही इक सादा आया

शाह वज़ीर मस्ती में डूबे
अपनी बारी प्यादा आया
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 01-जून-2011 / समय : 11:40 रात्रि / घर