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गण, पैसा और तंत्र

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

आज,
फिर मना गणतंत्र दिवस
सुबह से ही रेडियो चीख रहे थे
मॉल्स में भारी छूट मिल रही थी
देशभक्तिं शीतलहर सी फैली हुई थी
स्कूलों से लड्डू खाये बच्चे लौट रहे थे
गण चौराहों पर बेच रहा था
एक रुपये में झंडा
जो कुछ देर तो जरूर हाथों में था
रस्मी तौर पर फिर.........


जिनके,
बाप के पास पैसे थे
उनके हाथ में झंड़े थे
तंत्र उनके साथ था
जिसके पास पैसा था
सुस्ता रहा था छुट्टी  की दोपहर
और बचा हुआ,
गण,
पैसे पैदा कर रहा था
झंड़े बेचकर /
घरों से कचरा फेंककर /
या बदल कर भीड़ में
एक जून की जुगत में
जिंदाबाद / जयहिन्द बोल रहा था
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० दोपहर / पलासिया चौराहे पर

कविता : गुंजाईश भर सच

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

प्रिय ब्लॉगर साथियों,

नये वर्ष की मंगलकामनाओं के साथ कि आप सभी अपने सपनों को हकीकत में बदल पायें, स्वस्थ रहें, समृद्ध बनें।
वर्ष 2011 की पहली प्रस्तुति दे रहा हूँ, आपके समर्थन और स्नेह की आकांक्षा के साथ सादर प्रस्तुत :-


मेरे,
तुम्हारे बीच
जहाँ खत्म होता है
हमारा एक होना
और हम बँटने लगते है अलग-अलग
वहाँ तुम महसूस करती हो
हवा को साँस लेते हुये
बस उतनी ही गुंजाईश भर सच था
किसी मुलम्में की तरह
हमें जोड़ता हुआ


यही,
सच कचोटता /
कसमसाता था रहरहकर
तब महसूस करता था कि
तुम्हें भी दुनिया देखना चाहिये
अपनी आँखों से
और महसूस करना चाहिये
वो सारी चुभन जो मेरे हिस्से में आती है
तुम्हारे लिये जीते हुये


जबसे,
तुमने घर से बाहर रखा है कदम
दुनिया छोटी हुई है
लेकिन कद भी सिमटा है तुम्हारा
अब तुम्हारी
परछाईयाँ नही आती
मेरे आँगन दहलीज लाँघती हुई
लेकिन,
तुम्हारी गंध जरूर घुली रहती है
मेरे आस-पास अब भी
हमारे बीच की दूरियों में घुल रहा है ज़हर
और चुभन कहीं ज्यादा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 15-दिसमबर-2010 / सायं : 06:45 / ऑफिस