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कविता : धरा, आकाश और वायु

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

कभी,
सोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ
शायद धरा
लेकिन तुम जितना सह लेती हो
अनकहे रिश्तों का दर्द /
रीते मन में सालती हो टीस /
तुम धरा तो नही हो सकती


सोचता हूँ,
तुम्हें पुकारू आकाश कभी
लेकिन देखता हूँ
तुम्हारी आँखों में
सितारों से कहीं ज्यादा आँसू हैं /
दामन में इतनी सिलवटें कि
दामिनी गुम हो जाये कहीं अपनी चमक खो कर
तुम आकाश तो नही हो सकती
जो इतराता है
अपने मुट्ठी भर सितारों पर
या चाँद के एक टुकड़े पर


सोचता हूँ,
तुम्हें वायु का नाम दूँ
तुम घुली रहती हो मेरे ख्यालों में
किसी भी आकार में ढली हुई
लेकिन तुम
अपने साथ केवल पराग ही नही ले जाती हो
हवा की तरह
और छॊड़ देती हो अपने हाल पर
तुम अपने संग लिये जाती हो
संस्कृति / संस्कारों की बेल
और पोषती हो उसे
तिल-तिल सूखते हुये
नही,
तुम वायु भी नही हो सकती


मैं,
सोचता हूँ
किसी दिन शायद तुम्हें दे पाऊं
कोई नाम
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ
मैं,
तुम पर नही थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 03-अक्टोबर / समय : 09:30 रात्रि / घर