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कविता : उगती दीवारों के बीच

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कुछ,
पता नही चलता कि
कब तुम नींव से बदले स्तंभ में
फिर दीवारों में वक्त के साथ
और
फिर तुम्हारी उपयोगिता पर ही
उठने लगे सवाल
नये रास्तों के लिये


रास्ते,
जिन पर न जाने
कितने लोगों ने पायी होंगी मंजिलें
वक्त के साथ
दिशाहीन हो जाते हैं /
जिनके सिरे खत्म नही होते कहीं पर /
या कहीं खुलते नही


तब,
जमीन में होने लगती है
हलचल
पहले नींव बदलती है स्तंभों नें
फिर स्तंभ दीवारों में
और
दीवारें कुर्बान होने लगती हैं
नये रास्तों के लिये
भले ही कुछ दूर के लिये ही सही
रास्ता बनता तो है
जिसके सिरे पर फिर से
दीवारें उगने लगी हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२०१० / समय : २:१५ दोपहर

गज़ल : कोई मुझसा ही मुझे ढूंढता होगा

शनिवार, 11 सितंबर 2010

आईना खुदही हैरां होता होगा
वो मुझे जब भी देखता होगा

शक्ल गुम हो गई हैं कहीं भीड़ में
कोई मुझसा ही, मुझे ढूंढता होगा

दफ़न होता रहा जो हर करवट पे
सलवटों में दर्ज फसाना पढ़ता होगा

ढल चुकी ख्वाब में दिन की नाकामियाँ
सोते हुये मेरे साथ कोई जागता होगा

वुजूद गुम हो गया है गर्दिश में
अजायब सा जहाँ मुझे देखता होगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०३-अगस्त-२०१० / समय : ०५:५० सायँ / घर