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कोख के अंधेरों से

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

वो,
बिल्कुल भी नही जानता कि,
किसी को उसका इंतजार है भी या नही
कोख़ के अंधेरे छोड़कर
सह्सा किसी दिन देना है
द्वार पर दस्तक अनचाहे मेहमान सा

उसे,
यह भी नही पता होता है कि,
उसका जन्म उसका अपना प्रारब्ध है
या एक ढोयी जा रही मजबूरी
बस अंधेरों में किसी तरह
करना है इंतजार
माँस को बद्लते हुये जिन्दगी में

फिर,
धीरे-धीरे जिन्दगी ढलने लगती है
किसी शक्ल में
जिसे शायद वो तो नही जानता
पर पेट पर उसके आस-पास
अक्सर गूँजती है रह-रहकर
कोसती / मन्नते माँगती आवाजें

किसी,
दिन उसे सुनाई देती है
बडे जोर से आती गूंजे
दबाती उसे करीब करीब हर कोने से
जैसे कोई टटोल रहा हो
उसका वुजूद
फिर,
आने लगती है किसी के रोने की आवाजें /
किसी के गूंजने लगते हैं तानें

बस,
इसी वक्त वह समझ पाता है
वह केवल भ्रूण भर नही रहा
उसमें पड़ रही है जान
वह हो रहा विकसित किसी लड़की के रूप में
और, यह जो आवाजें गूंज रही हैं
फिर,
उसे पहुँचा देगी
उन्ही अंधेरों में /
किसी ऑपरेशन टेबल पर से
मेडिकल वेस्ट इंसिनरेटर में
या किसी नाले में
शायद इस चक्र से गुजरना है बार-बार
यदि वह अभिशप्त है
अपने हर जन्म में
लड़की होने को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-फरवरी-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर