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कोई अकेला तो नही बूढ़ा होता

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

हमारे

बीच वो सब था
जो कि होना चाहिये
जिससे किसी रिश्ते को
कोई नाम दिया जा सकता है


वो,
सब भी था
जो बांधे रखता है
एक डोर में
उलहानों की लालिमा में
सजी सुबह से लेकर
नाराजियों की उबासियाँ लेती
अलसाई दोपहरी /
तानों से बोझिल उदास शाम तक
और इन सबके बावजूद
जो है / जैसा है स्वीकारते हुये
एकसाथ बने रहने की अदम्य इच्छा


मैं,
कभी महसूस करता हूँ कि
हम एकसाथ ना होते तो भी
जिन्दगी के किसी मोड़ पर
जरूर मिले होते
किसी भी वज़ह से या बिलावज़ह भी
लेकिन जरूर मिले होते
कोई अकेला तो नही बूढ़ा होता


हमारे
बीच सभी कुछ
भाग रहा हो हड़बड़ी में
जैसे दीवारें मचलती है
मुँह बाये नये रंगों के लिये
या बाल धकेल रहे हों
खिज़ाब को अपने से परे
केवल एक उम्र का फासला स्थिर है
और हम बुढ़ा रहे हैं
एकसाथ
-----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १६-दिसम्बर-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर

जब जिन्दगी लगी दाँव पर

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अपनी सौंवी पोस्ट के बाद एक नये स्ट्रांस के साथ पारी की प्रारंभ कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि एकाग्रचित्त रह सकूं और आपके स्नेह का पात्र भी।


सादर,


मुकेश कुमार तिवारी
----------------------------------------------------------------



संभावनायें,
जब भी लौटी निराश
जेब के मुहाने से
मैंने,
खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा

प्रत्याशायें,
केवल आशा भर रही
जब भी जिन्दगी लगी दाँव पर
द्यूत,
केवल विनोद भर नही था
कुछ और भी था अंतर्निहित
मैंने,
खुदको हारता पाया
सभी बाजी पर युधिष्ठर की तरह
सत्यनिष्ठ होने की सजा भोगता, बेबस लाचार सा

आशायें,
विश्वास देती रहीं कि
कुछ भी अशेष-शेष नही होता
खाली हाथों में
बहुत जगह होती है कि
वो,
कैद कर सके हवा को /
मोड़ सके हवा का रूख अपनी ओर /
सपनों की पतंग को दे सके आसमानी उड़ंची
और,
मैं महसूस करता हूँ
जेब में मचलते पाँसों को /
हाथों में हो रही खुज़ली को
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-दिसम्बर-२००९ / समय : ११:४१ दोपहर / घर

अपनी सौंवी पोस्ट पर

सोमवार, 30 नवंबर 2009

शतक / सैकड़ा / शतांक केवल लुभाता भर नही है बल्कि एकाग्रता बढ़ाता है, जिम्मेदारियों को महसूसना सिखाता है, निरन्तरता बनाये रखने की प्रेरणा देता है। अपनी सौंवी पोस्ट पर मैं सभी ब्लॉग साथियों का शुक्रगुजार हूँ कि आपकी सुलभ प्रेरणा, प्रतिक्रियायें मेरा मार्गदर्शन करती रहीं अन्यथा मैं तो अपनी आदत के मुताबिक कुछ भी स्थायी नही रख पाता हूँ मात्र एक उलझा-उलझा जिन्दगी की मुश्किलों की सुलझाने की कोशिश में खुद को ही भूल बैठता हूँ कभी।

आज मैं अपनी एक पुरानी कविता "मैं, तुम, बेटा और दीवारें" प्रस्तुत कर रहा हूँ इस कविता ने मेरे बहुत से साथियों को श्रोताओं को गोष्ठियों में करीब से छुआ है।

सादर,

आपका स्नेहाकांक्षी



मुकेश कुमार तिवारी
----------------------------------------------------------------

मैं, तुम, बेटा और दीवारें



अक्सर,
रातों को
मैं, तुम, बेटा और दीवारें
बस इतना ही बड़ा संसार होता है
बेटे की अपनी दुनिया है / उसके अपने सपने
दीवारें कभी बोलती नही
और हमारे बीच अबोला
बस इतना ही बड़ा संसार होता है


तुम्हारे पास है
अपने ना होने का अहसास /
बेरंग हुये सपने /
और दिनभर की खीज
मेरे पास है
दिनभर की थकान /
पसीने की बू
और वक्त से पीछे चल रहे माँ-बाप


ना,
तुमने मुझे समझने की कोशिश की
ना मैं समझ पाया तुम्हें कभी
तुम्हारे पास हैं थके-थके से प्रश्न
मेरे पास हारे हुये जवाब
अब हर शाम गुजर जाती है
तुम्हारे चेहरे पर टंगी चुप्पी पढ़ने में
रात फिर बँट जाती है
मेरे, तुम्हारे, बेटे और दीवारों के बीच
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी

शर्ट पर ठहरी हुई सिलवट

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

उस,

भीड़ भरी गली जिसमें
मैं यूँ ही ठेला जा रहा था
जैसे हम अक्सर गुजार देते हैं जिन्दगी
ना कुछ अपनी /
ना अपना कोई कन्ट्रोल
बस बहाव के साथ चलते
रहने की मजबूरी

तुम,
उस दिन मुझे फिर दिखायी दिये थे
उसी भीड़ भरे रैले में
फिसलते हुये उंगलियों से छूटती गई
तुम्हारी कलाई
तुम ठहर गये मेरे शर्ट पर
किसी सलवट की तरह
और तुम्हारे पलटे हुये कॉलर ने
पूछा था मेरा हाल
कानों में फुसफुसाते हुये

मैंने,
महसूस किया था उस दिन भी
तुम्हारी साँसों में
बची रह गई गर्मी को /
तुम्हारे पसीने की गंध में
महकती अधपकी रोटियों को /
उस भीड़ के सीने पर
तुम्हारे जमे हुये कदमों को
और,
अपने उखड़ते हुये कदमों पर
तरस भी आया था

शायद,
तुम अब भी
उसी चूल्हे से चिपके हुये हो
बिल्कुल नही बदले
हालांकि,
मैंने अपनी पाठशाला में पढ़ा था
कि सदाचार के चूल्हे पर
नैतिकता की आँच से रोटियाँ नही सिंकती
और तुम तो जानते ही हो कि
कि अधपकी रोटियाँ कच्च-कच्च करती हैं दाँतों में
मुझे,
अधपकी रोटियों से आती है
आटे की गंध
मैं,
कच्ची रोटियाँ नही खा सकता
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १५-नवम्बर-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

कविता : पहला सौदा

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मेरी पहली बैंगलोर यात्रा का एक वाकिया जिसने जिन्दगी के प्रति मेरे नज़रिये को काफी प्रभावित किया था, आज बस यूँ ही बाँटना चाहता हूँ आप सबसे, होन सकता है कि ऐसे ही किसी दौर से आप भी गुजरे हों?




मुकेश कुमार तिवारी
----------------------------------------

रेल्वे स्टेशन,
से मेजेस्टिक सर्कल पर आती हूई सड़क पर
बस स्टैण्ड से गुजरते हुये
नासपातियों के ठेलों के बीच से गुजर
सड़क पर बिखरे कोलाहल में
कोई मेरे कान पर रेंगता है धीरे से
लेडिस!



यही,
कोई पन्द्रह सोलह की उमर का लड़का
मूछों का वजन भी नही महसूस किया हो जिसने
पहली नज़र में तो यह लगे
शायद, लिफ्ट माँग रहा है
या टिकिट के पैसे
वह फिर दोहराता है
मरी सी आवाज में
लेडिस!
सड़्क भाग रही है
और वह मेरे साथ सटा हुआ है



वह,
सकपकाता है इस बार
और बोलने लगता है धाराप्रवाह किसी दक्षिणी भाषा में
फिर अटक जाता है रूआंसा अंग्रेजी में
लेडिस! पर
शायद, यह उसका पहला सौदा था
मैं पहला ग्राहक
और इन सबसे गुजरना मेरा पहला अनुभव
रहा सवाल लेडिस का तो?
उसे तो कोई भी बेच सकता है
किसी भी उम्र में / कहीं भी सरे बाज़ार
बस भूख लगनी चाहिये
जरूरी बेशर्मी खुद-ब-खुद आ जाती है
---------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-जून-२००९ / समय : ११;१५ रात्रि / घर

छांव के पैबंद

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

खजूर,

सीधे, तने हुये धरती के सीने पर

या मुड़े हुये बेतरतीब अलसाये से

जब भी मैनें देखा उन्हें

उनींदे अधूरे ख्वाबों सा लगे

आसमानी बुलंदी को छूने के पहले /

ठिठके हुये हौंसले से

जलती दुपहरी में छांव के पैबंद से लगे



जब से,

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ



खजूर,

अब नही दिखाई देता है

खेतों की मेड़ पर / ताल के किनारें

गाँव के मुहाने पर / खपरैले घरों में

बदले हुये चटाईयों में

डुलिया में / छबड़ियों में / सूपे में

या झाडूओं में

सभी जगह उग रही हैं

गाजर घांस

ना आदमी में कुछ बचा

ना खजूर में

दोनों ही नज़र नही आते

--------------------------

मुकेश कुमार तिवारी

दिनाँक : २८-ऑक्टोबर-२००९ / समय : ११:०९ रात्रि / घर

माया, नज़रिया और ज्ञान

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

हम,
सिर्फ पैकिंग बदलने को
बदलाव / परिवर्तन का नाम दे देते हैं
और खुद भी भ्रमित हो जाते हैं
शायद,
माया इसी को कहते हैं

हम,
जितना देख पाते हैं
बस वहीं समेट लेते हैं दुनिया को
और सिखाते हैं क्षितिज की परिभाषा
शायद,
नज़रिया इसी को कहते हैं

हम,
जितना जानते हैं
उससे एक इंच भी आगे बढ़े बगैर
देने लगते हैं सीख आसमान छूने की
शायद,
ज्ञान इसी को कहते हैं
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक १०-ऑक्टोबर-२००९ / समय : १०:१५ रात्रि / ऑफिस

मैं, पहले तो ऐसा ना था

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

यह वाकिया एक न्यूरोसाईकेट्रिक फिजिशियन के क्लीनिक को विजिट करने पर जो कुछ देखा था/महसूस किया था वो सब आपके सामने है। मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि इस आपा-धापी के युग में हमारी संवेदनायें मरती जा रही हैं और हम केवल अपने में ही सिमट रहे हैं :-

वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये

वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है

वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार

मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में

शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

बिस्तर में सिमटे हुये प्रश्न

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

क्यों?
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं

क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं

क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले

क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर

तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

तुम,
आँखों में झांकते हुये
पढ़ लेती हो विचारों को
इसके पहले कि वो बदल सकें शब्द में
शब्दों को जैसे पहचान लेती हो
तुम्हारे कानों तक पहुँचने के पहले
और अपनी पूरी ताकत झोंक देती हो
उस शब्द को बेअसर करने के लिये

तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में

तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन
--------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २४-सितम्बर-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर /

....बने रहने के लिये

शनिवार, 12 सितंबर 2009

अपने आस-पास बनी हुई या चलती हुई व्यवस्था में, मैं कबि जब अपने को खोजता हूँ तो निरर्थक सा महसूस करता हुँ या समय से पीछे चलता हुआ एक ऐसी मौजूदगी जो गैरजरूरी रूप से मौजूद है और वही घुटन जब शब्दों के साँचे में ढलती है तो ........



मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ

सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ

व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
-------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर

हथेलियों से गुम होती रेखाएँ

बुधवार, 9 सितंबर 2009

आगरा केवल ताज ही नही अपने पेठों के लिये भी मशहूर है, पेठे जिनकी मिठास मुँह में घुलने के बाद भी बड़ी देर तक बनी रहती है। उसी पेठे को एक दूसरी नज़र से देखने का प्रयास किया है, आशा करता हूँ कि आप पसंद करेंगे.........

मुकेश

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पेठा,
मीठा-मीठा
जुबान पे रखते ही घुल जाने वाला
जैसे ही याद आता है
मुँह में आने लगता है पानी
और,
जेहन में घूमने लगती हैं
आगरा की गलियाँ /
गलियों में दफ्न होती जिन्दगियाँ

इन,
गलियों में घरों के पीछे बनी
हौजों से आती चुनयाती गंध
आंगन में पकती हुई चाश्‍नी के काढाव
औसारी में गोदे जाते भूरे कोलों(कद्दू) का ढेर
नालियों पर धुलते मर्तबानों की भीड़

और,
याद आता है
वो बच्चा,
जिसकी किताबों के हर्फ
गर्क हो गये चूने की हौजों में
वो आदमी,
जो समय से पहले बूढा हो आया हो
जिसकी हथेलियों में
कोई भाग्यरेखा बची ही नही चूने के आगे
वो औरत,
जिसकी हंसी बदलती गई चाश्‍नी में
वो बूढा,
जो नही देख पाता कुछ और
मर्तबानों के सिवाय

शक्कर,
बदलती है चाश्‍नी में /
भूरा कोला,
बद्लता है खोखे में /
आदमी,
बदलता है भीड़ में
और, जिन्दगी,
बदलती है पेठे में
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

प्रतीक्षारत तुलसी

सोमवार, 31 अगस्त 2009

यह कविता ब्लॉग पर प्रकाशन के पूर्व पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के अगस्त माह के अंक में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका पूज्य दीदीमाँ साध्वी ऋतुंभरा जी के आशीर्वाद से उनके संस्थान "वात्सल्य ग्राम" द्वारा किया जाता है।

यहाँ पुनर्प्रकाशन एवं पेज का डिजाईन पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के साभार सहित,

मुकेश कुमार तिवारी
-------------------------------------------------
प्रतीक्षारत तुलसी

तुलसी,
आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
आँगन में खडी़ है
प्रतीक्षारत
कि सुबह कोई पूजेगा /
अर्ध्य देगा / सुहाग लेगा
शाम कोई सुमिरन करेगा
संध्या के साथ वह भी पूजी जायेगी

अब,
सुबह से ही भूचाल आ जाता है
घर में
जो देर शाम तक
निढाल हो गिर जाता है बिस्तर में
अल्मारियों में टंगे हैंगर
इंतजार करते रह जाते है
कपड़ों का
सिर तलाशते रह जाते हैं
गोद
कोई रोता भी नही बुक्का भरके
किसी को याद नही आती
तुलसी
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 14-जून-2009 / समय: 5:00 बजे सांय / घर

बहस

बुधवार, 26 अगस्त 2009

किसी,
मुद्दे पर जारी बहस
जब छोडती है बौद्धिक स्तर को
तो उतर आती है तू तू-मैं मैं पर
और फिर हाथापाई पर
कोई कभी भी और कहीं से भी
भाग लेने लगता है बहस में
जैसे किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढते उतरते हैं लोग

मुद्दे का गद्दा
पहले बदलता है तकिये में
अंततः हवा मे़ उडने लगती है रुई

न सूत बचता है न कपास
फिर भी जुलाह¨ में लट्ठम लट्ठ जारी रहता है
औरर बोर्ड रूम के द्वार पर
“लाल“ बल्ब जलता रहता है देता संदेश
कि
यह मीटिंग अभी खत्म नही होने वाली
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक: 18-जून-2008 / सुबह: 10:45 / विभागीय बैठक के दौरान

इंसानों के बारे में

शनिवार, 22 अगस्त 2009

मुझे,
यह लगता था कि
इंसान बातों को समझता है
और अपने तर्कों को औज़ार बनाया था
उनसे बातें करने को

मुझे,
यह भी लगता था कि
सभी इंसान दिल से अच्छे होतें हैं
केवल परिस्थितियाँ उन्हें
बद, बुरा या नेता बनाती हैं
और मैं सबसे दिल खोल के मिलना चाहता था

मैनें,
यही सीखा था कि
इंसान जब समूह में रहते हैं तो
समाज का निर्माण होता है
और मैं सबको साथ लेके चलना चाहता था

मैं,
यह सीख पाया कि
धीरे-धीरे समाज विघटित होता है
यूनियनों में
और बिखरने लगता है
गाली, गलौच, माँगों और नारों के साथ

मैनें,
देखा और झेला भी है कि
वही इंसान अपनी केंचुली बदल
किसी निगोसियेशन में आता है तो
मुझमें देखता है किसी कसाई को
और खरोंचे मारने लगता है

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?
------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १९-अगस्त-२००९ / समय : ५:१५ सायं / ऑफिस में वर्कर्स वेज निगोसियेशन के दौरान

टारगेट के पीछे भागते

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

आज,
फिर पूरा दिन गुजर गया
टारगेट के पीछे भागते
दिन है कि
जैसे पूरा था ही नही
अधूरा सा दिन
बस पलों में सिमट आया
धुंधलके में
टारगेट वहीं था
और हमारे बीच दूरियाँ
रात की तरह गहराती जा रही थी


सारा,
सामर्थ्य झोंक कर भी
मैं
विफलता के साये में
ढूंढ रहा था
कोई सुकून भरी तपिश /
कोई पसीने में नहाई सुबह /
और बचना चाहता था
किसी रिव्यूह से
जहाँ लानतों का ठीकरा
बुके के पीछे से झांकता
कर रहा होगा
मेरा इंतजार
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १८-अगस्त-२००९ / समय : ०७:२५ सायं / ऑफिस

पहिला साल पहिला पड़ाव_ ब्लॉगिंग का एक साल पूरा होने पर

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

जन्मदिवस जब भी आता है, खुशियाँ समेटे हुये आता है और हम तो वैसे भी भाग्यशाली हैं साल में कुल जमा तीन ठौं जन्मदिवस मनाते रहे अब तक। पहिला चैत्र मास शुक्ल पक्ष की नवमी को गोबर से लीपी हुई जगह, आटे से बनाये चौक, गौरी पूजा, गुलगुलों का भोग और मीठा दूध बुआ के हाथों पीते रहे। दूसरा वो जो अंग्रेजी महिने अप्रैल की तारीख ६ को जिस दिन एक मज़दूर बस्ती के जच्चाखाना में हमारी किलकारी गूंजी थी। तीसरा वो मई माह की १४ तारीख को जिस दिन करीब ११ महिने छोटी अवस्था में स्कूल ज़बरिया ठेले गये और सारे सरकारी खाते-बही में अब यही दर्ज है और इसी दिन रिटायर हो जाना है, कोई नही समझना वाला इस दर्द को।
बहरहाल यह तो हुई बात अब तक मनाये हुये जन्मदिवसों की जिस पर हमारा अपना कोई कंट्रोल नही था, बस रस्मी तौर निभाना भर था। चलिये छो़ड़िये जो हुआ तो हुआ, अब आपसे कहना जा रहा हूँ, अगस्त माह की १३ तारीख को एक और जन्मदिवस है और इस बार यह पूरा का पूरा हमारा ही है, इसी दिन हम पहली बार ब्लॉग पर उतरे थे ( वैसे यह सच कहने में कोई बुराई नही है इसके पहले एक बार हम और हाथ-पांव मार चुके हैं वेबदुनिया के ब्लॉग मेरी कविताएँ पर) एक दिन रचनाकार पर की किसी टिप्पणी को सहेजते हुये श्री रवि रतलामी जी मेरे ब्लॉग पर आये और उन्होंने मुझे या तो वर्ड-प्रेस या ब्लॉगस्पॉट से जुड़ने की सलाह दी, नतीजतन आज हम कवितायन के माध्यम से अपने विचारों को कविताओं में बदल आप तक ठेल रहे हैं।
इस पहले पड़ाव तक आते हुये जो कुछ जमा हुआ है या हिस्से में आया है उसका लेखा-जोखा ( कोई लेखा-संपरीक्षक/ऑडिटर तो नही दे पायेगा, आपको हमें ही झेलना होगा) आपके समक्ष है :-
कुल पोस्ट : 82
नज़र हुई टिप्पणियाँ : 572 ( पार्टी तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करती है )
अब इस सफर की शुरूआत हुई पहली किलकारी "कॉन्फ्रेंस" से जो एक हालिया अनुभव को कविता में बदल कर धकियाया गया था, जो कि १३-अगस्त-२००८ से लगाकर अगली पोस्ट ०६-ऑक्टोबर-२००८ तक भी बिना किसी टिप्पणी के मौजूद थी(कितनों ने पढ़ी होगी यह तो नही कह सकता, अलबत्ता हमारी मौजूदगी हो गई थी).ब्लॉगस्पॉट पर।
हौसला अफ्ज़ाई की पहल की श्री प्रदीप मनोरिया जी ने अपनी टिप्पणी हमारे दूसरे कदम " अवसाद ग्रस्त लड़की" से पार्टी उनकी बरकत में बढो़त्तरी की दुआयें खुदा से करती हैं। फिर क्या था उस एक टिप्पणी ने तो रास्ते खोल दिये और हमारे मंसूबों को भी पर लगा दिये। ऐसा लगने लगा कि सभी जैसे भोर में किसी न्यूज पेपर का इंतजा़र करते हैं वैसे ही पलक पांवड़े बिछाकर बैठे होंगे कि अभी हम सुबह के माथे पर टीक देंगे एक कविता और उनका दिन सफल हो जायेगा। फिर क्या एक पर एक कविता पेलने लगे, कुल नौ ठौं कविता पेलने बाद भी टिप्पणी वहीं की वहीं। और ब्लॉग पर टेम्पलेट और ढेर सारे बिल्ले( मुआफ कीजियेगा बिल्लियों वाले नही) "चिट्ठाजगत", ब्लॉगवाणी, हिन्दी ब्लॉग इत्यादि देख मन मसोस कर रह जाता था, क्या करें और कुछ पता भी नही था। अब भी मेरा ब्लॉग के बारे में ज्ञान काले अक्षर से आगे नही बढ़ा था।
ब्लॉग पर विजिट बढाने के नुस्खे खूब पढ़े पर ऐसा लगा कि तरीका कोई और ही काम आयेगा, तभी अचानक श्री बृजमोहन श्रीवास्तव साहब का आशीर्वाद मिला और एक नेक सलाह भी किसी सट्टे के नम्बर की तरह कि भईया यह गोरखधंधा समझ गये तो सफलता जरूर मिलेगी। इसके बाद ही हमारी एक कविता "माँ, केवल माँ भर नही होती" को सिर्फ टिप्पणियाँ ही नही मिली बल्कि श्री गिरीश बिल्लौरे "मुकुल" जी ने उसे अपनी एक लाईन की चर्चा में शामिल कर जो मान दिया वह किसी तिनके के सहारे सा आया, डूबने से बचना था सो बच गये। अब तक चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर हमारा दाखिला हो चुका था।
जिस कविता ने हमारी जिन्दगी बदल दी वो थी "लड़्कियाँ तितली सी होती हैं" अगर श्री अनूप जी शुक्ल नैनीताल नही गये होते और यह पोस्ट नही पढी होती तो शायद हम भी ब्लॉग से विमुख हो गये होते कि भाई यह क्या हुआ कि खूब रात-रात जाग के सोचा, लिखा फिर कम्प्यूटर पर उँगलियाँ तोड़ी और किसी ने देखा भी नही। पार्टी अपनी कामयाबी में श्री अनूप जी शुक्ल के योगदान को नही भूल सकती कभी कि बाद की १० चर्चाओं में मेरी कविताओं को स्थान देकर मेरा मान बढ़ाया।
(१) लड़कियाँ तितली सी होती हैं
(२) तार तार सच
(३) समय से तेज चलती घड़ियाँ
(४) तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद
(५) कण्डोम क्या होता है
(६) सुकून से सोने के लिये
(७) जब गुम हो जायें लिपियाँ
(८) क्षितिज के पार
(९) कैसी लगती हो?
(१०) एक तौलिये वाले लोग
इसके बाद हिन्द-युग्म पर आयोजित मार्च माह की यूनिकविता प्रतियोगिता में अपनी कविता "चिड़िया हमारे घर आती थी कभी" के लिये द्वितीय स्थान मिलने का प्रोत्साहन हमें अप्रैल-२००९ के यूनिकवि के सम्मान के साथ प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया कविता " सिमटते आँगन बंटती दहलीज " के लिये। हिन्द-युग्म इसी तरह से अपने अभियान में कामयाब हो इसी भावना के साथ श्री शैलेश भरतवासी जी का विशेष आभार।

रंजना भाटिया(रंजू) मैम के बारे में क्या कहूं क्या ना कहूं, मेरी कविताओं को उन्होंने एक पारखी की नज़र से देखा, कमोबेश सभी पोस्टों को पढ़ा और अपनी टिप्प्णियों से नवाज़ा है। उनकी टिप्प्णियों ने मुझे नारी को नारी सुलभ दृष्टीकोण से देखने और उस पीड़ा को महसूसने की समझ दी
जिनकी(ब्लॉगर्स) शुभकामनाओं के बिना इस मुकाम तक पहुँच पाना असंभव था सुश्री निर्मला कपिला , रश्मिप्रभा , आर. सी., राज , उर्मी चक्रवर्ती , पूजा , वन्दना , शमा , लता हया , क्षमा साधना , आशा जोगलेकर , शोभना चौरे , रंजना, ज्योत्सना पाण्डेय, मोना परसाई "प्रदक्षिणा" और आदि। तथा सर्वश्री समीरलाल , ज्ञानदत्त , ताऊ रामपुरिया , अनुराग शर्मा स्मार्ट इंडियन , डॉ. अनुराग , देवेन्द्र द्विज , मुफ्लिस साहब , ओम आर्य , बृजमोहन श्रीवास्तव , मेजर साहब गौतम राजऋषि
, दिगम्बर नासवा , आनन्दवर्धन , प्रदीप मनोरिया , नवीन शर्मा , विक्रम जी , डॉ. भूपेन्द्र कुमार सिँह , मंसूरअली हाश्मी , संजीव मिश्रा , विवेक प्रजापति (जो कि "नज़र" के नाम से अधिक जाने जाते हैं) , रवि श्रीवास्तव , एम. के. वर्मा साहब , अमिताभ श्रीवास्तव आदि।

अपने पहिले ब्लॉग जन्मदिवस पर आपके आशीर्वाद का आकांक्षी,

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

अपनी सीमाओं से परे

शनिवार, 8 अगस्त 2009

मुझे,
सुबह कोई,
साजिश रचती हुई लगती है
छोटी होती परछाईयों का खौफ़ दिल बैठाता है
यूँ लगता है कि
मेरे सपनों से दुश्मनी पाले बैठा है कोई
दुनिया भागते हुये लगती है
और मैं जकड़ा जाता हूँ
अपने ही साये में

मुझे,
दिन में ड़र लगता है
घर से बाहर निकलने में
सिहरन महसूस होती है
सांसों में ज़हर घुला सा लगता है
घुल जायेगा मेरा वुजू़द कुछ और देर खुले में रहा तो
मैं सिमटने लगता हूँ

मुझे,
लगता है कि
शाम जैसे जैसे ढ़लेगी
कोई अज़नबी सा आ दुबकेगा
मेरी परछाईयों में
साँसों में तेजी आने लगेगी
हड़बड़ाहट से लड़खड़ाते हुये कदम
कैसे भी उठा लेगें मेरा बोझ
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
मेरी, अपनी सीमाओं से परे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-अगस्त-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर

वो, मुझसे करती है शिकायत

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

कविता सदा ही अपने आस-पास से प्रेरणा देती रही है मुझे, मेरी बिटिया " अदिती " एक दिन मेरी शिकायत मुझसे से ही करती है कि मैंने क्यों उसको लेकर कुछ नही लिखा आज तक? यह कविता इस शिकायत के बाद लिखी है कि वह ऐसा क्यों महसूस करती है, कि मुझे छोटी बिटिया "श्रेया" से ज्यादा प्यार है । यूँ तो यह कविता पिछले एक वर्ष से इंतजार कर रही थी, आज ठीक एक साल रक्षाबंधन की पूर्व संध्या पर इसे अदिती को तोहफे के रूप में प्रस्तुत करते हुये मुझे बड़ी खुशी हो रही है।

आपका समर्थन मुझे प्रोत्साहित करेगा,


मुकेश
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वो
मेरी जिन्दगी में कब आई?
कुछ पता ही नही चला
जैसे दोपहर की झपकी हो
या भोर का ख्वाब

मैं,
ना जाने कैसे अंजान रहा
ना कभी उसके बारे में कुछ सोचा ना लिखा
ना कभी उसे देख पाया उसकी पहचान से
वो, जैसे घुल आई हो मिश्री की तरह मिठास में

वो,
किसी खामोश वादियों में
गूँजते संगीत सी हरदम थी मेरे साथ/
किसी नदी की कलकल सी/
दौड़ती रही मेरी रगों में अपनी पहचान से मुक्त

वो,
गुमसुम सी लड़की
जिसका पास होना ही
बड़ी बात समझा जाता हो
और वो पास होती है फर्स्ट क्लास
नकारते सारे अनुमान को

वो,
जो रो देती है किसी भी बात पर
चाहे भैया बीमार हो या मुझे चोट लगी हो
छोटी ने मारा हो उसे या गुनी ने नोचा हो
या किसी ने कुछ कह दिया हो

वो,
जब मुझसे करती है शिकायत
मैं क्यों नही लिखता कोई कविता उस पर?
ऐसा उसे क्यों लगता है कि
उसे नोटिस किये जाने की जरुरत है?
भला कोई अपने ही हिस्से को भूलता है कभी?
मैं आज समझाउंगा उसे।
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 05-अगस्त-08 / 07: 05 सुबह / चुनमुन की शिकायत पर

उसकी, उंगली कट गई है !!!

शनिवार, 1 अगस्त 2009

उसकी,
उंगली कट गई है
मशीन में आकर
उनकी
पूरी शाम चिंता में गुजर रही है
जो मशीनों से कोसों दूर होते हैं

किसी भी,
एक्सीडेंट को
यदि, वह इंडस्ट्रीयल हो तो
९६ फीसदी गलती इंसानी होती है
बची ४ फीसदी ही
मशीन / स्थितियों / परिस्थितियों
के हिस्से में आती है

मीटिंग रुम में बहस गर्म है
कारणों और कारको का
अंदाज लगाया जा रहा है
किस तरह से हुआ होगा /
कोई सिम्यूलेट कर रहा है /
किसी का कहना है
कूछ तो करना पडे़गा / एनालिसिस होना है
काऊंटरमेजर प्लान करना है

उसकी,
की उंगली में टांके आये है
काफी खून बहा है
शुक्र है फ्रेक्चर नही हुआ है /
या टपकी नही है
किसी को संतोष है
वह घर जा चुका है
शाम हो आई है अभी भी
एक्सीडेंट कैसे हुआ नही खोजा जा सका है.
सभी को भूख लगने लगी है
रिर्पोट कल पेश की जानी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० रात्रि

उम्र को पीछे छोड़ देने की चाहत

बुधवार, 29 जुलाई 2009

सारे,
घर को नचाने वाली
जिससे पूछे बिना एक पत्ता भी ना हिलता हो
आंगन में
या जिससे दर्पण, समर्पण कर बैठा हो
जब खडी होती है
मॉल्स में
किसी कॉस्मेटिक काऊंटर पर
ठिठकी सी
बेचारी लगती है

सेल्सगर्ल,
अपना काम बडी ही खूबी से
कर रही होती है
एक सपना सजों देने का
उसकी आंखों में
ब्यूटी टिप्स के साथ
फेस मास्क के साथ कंडीशनर /
एंटी रिंकल क्रीम / हेयर कलर्स के नये शेड
वह बस ठगी सी खड़ी होती है
हाथों में थामे
कुछ सुन्दर सी बोतलें / पैकेट्स
उम्र को पीछे छोड़ देने की चाहत में
वह कुछ भी तय नही कर पा रही है
रुके कुछ देर यूँ ही
और बसाये हसीन ख्वाबों को आँखों में /
या अपनी राह देख ले

वह,
कभी तो
जैसे लड़ रही होती है
अपने आप से
क्या छोडे क्या ले अपने साथ
फिर हार कर पूछ ही लेती है
उस बंदे से
चलें, कब से यूँ ही खड़े हो?
और
वह बेचारा चुप रह जाता है
गर्दन हिलाते हुये
कुछ ऐसे कि
जिसका मतलब हाँ या ना दोनों में से
किसी एक में निकाला जा सकता हो अपनी सहुलियत से

अब तक वह,
खुद भी बोर हो चुकी होती है
किसी दूसरे के इशारों पर बहुत देर तक नाचते हुये
अब,
उसे याद आने लगा है घर /
पड़ा हुआ काम /
आज महरी नही आने वाली है /
और,
बाजार में जो भी कुछ है
वह किसी न किसी के पास तो है
कुछ भी नया / एक्सक्लूसिव्ह नही है
------------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १९-मार्च-२००९ / समय : ११:३५ रात्रि / घर

बाट जोहते हुये

शनिवार, 25 जुलाई 2009

जबसे,
परिवार छोटे और मॉड्यूलर हुये हैं
छाते भी सिमटने लगे हैं आकार में
छाता,
अब कम ही देखने में आता है
काला, सारस सा गर्दन मोड़े हुये
बड़ा इतना की घुटनों के नीचे तक कपड़े भीगने से बचें रहे
वैसे भी अब इतने बड़े कपड़े पहनता कौन है

यह छाते,
पुरखों से हस्तांरित होते हुये पीढियों में
जिन पर कहीं दादी ने तुरपई की हो सुराख पर
या दादा ने पहले सीखा हो लिखना
फिर धागों से गोठा हो अपना नाम
अब भी पाये जाते हैं
घरों में लटके हुये खूंटियों पे संस्कारों के साथ
या किसी कोने में कबाड़ के साथ
बाट जोहते हुये कि
किसी दिन बारिश होगी
और वो फिर निकाले जायेंगे
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-जुलाई-२००९ / समय : ०३:४८ दोपहर / घर

कैसी लगती हो.....?

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

तुम,
जब मुस्कुराती हो
और मेरे कंधे पर सिर टिकाते हुये
बात करती हो
कुछ शिकायत भी
अच्छी लगती हो


तुम,
जब शाम से ही
मेरा इंतजार करती हो
और मेरे आते ही
समा जाती हो
मेरी बांहो में
अच्छी लगती हो

तुम,
जब बिलखने लगती हो
नाराज किसी बात पर
और मेरी किसी भी बात को
नही सुनती हो
बच्ची लगती हो

तुम,
जब उदास होती हो तो
पैर पटकते हुये
घूमती हो आँगन में
या सिर पर पट्टी बांधे
सिमटी होती हो बिस्तर पर
क्या कहूँ .............?
कैसी लगती हो ?
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-मई-२००९ / समय : १०:०५ रात्रि / घर

शब्दों की तलाश में

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

मैं,
नही चाहता कि
तुम किसी दिन भूल जाओ
अपना नाम भी
और गुमसुम बैठी रहो ताकते शून्य में
और चेहरे पर उभर आयें आंसुओं की लकीरें

किसी,
प्रश्‍न के जवाब में
तुम्हें तलाशने हो शब्द
फिर थक-हार चुप बैठ जाना हो
या बड़ी देर बाद कुछ कहो
और,
किसी प्रतिप्रश्‍न के जवाब में सुबकते हुये
थमी नज़रों से देखो मेरी ओर
फिर दीवारों पर पढती रहो खबरें
या फर्श पर देखती रहो आसमान

मैं,
नही चाहता कि
तुम अब तलाश की शुरूआत करो
खोजो गुम हो आये शब्दों को
परदों पर लिखो इबारतें
या किसी उलझी हुई कॅसेट को सुलझाते हुये
गुजार दो पूरा दिन
और आईने से खुद का पता पूछती रहो
-----------------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ११-जुलाई-२००९ / समय : १२:३८ रात्रि / घर

घर

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

घर,
जिसकी दीवारों से सीलता हो
बुजर्गों का आशीर्वाद
उखड़ते प्लास्तर से झांकती हो
दुआयें
छतों से टपकता हो
अपनापन
या दहलीज लांघकर आ जाती हो
बरकत,
बारिश के पानी के साथ


घर,
जिसे नया बनाने के लिये
माँ ने पापा से कितनी ही लड़ाईयाँ लड़ी हो
कभी-कभी आँसू भी बहाये हों
बच्चों ने सिखायी हो
अपने बाप को प्लानिंग
या कभी दिखायी हों नाराजगियाँ

अंततः,
एक अदद किराये के मकान के साथ
जिसे घर में बदला जा सकता है
वही घर,
एक एककर जब खाली होता है तो
लिपटता चला जाता है बदन से
और चल पड़ता है
हमारे साथ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-जुलाई-२००९ / समय : दोपहर ०४:०० / नये घर में

मकां को कभी घर बनाया होता

शनिवार, 11 जुलाई 2009

यह मैं भली भांति जानता हुँ, कि मेरे शौक में अकविता-कविता लिखना रहा है। धीरे-धीरे अंतरजाल पर गज़अलों को पढते हुये और गुरूजी श्री पंकज सुबीर सा. की कक्षाओं से जो कुछ सीखा उसे आजमाने की कोशिश की है।

आप सभी के विचार / सुझाव चाहूँगा।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

मकां को कभी घर बनाया होता
हौले से कभी हाथ दबाया होता

बदली सा बरस जाता मुसल्सल
भूले से कभी ख्वाबों में बुलाया होता

बोझिल सी दुपहर में कुछ पल साथ होते
हाल-ए-दिल सुनके कुछ अपना सुनाया होता

अल्फा़जों की भी कोई हद होती है
यह फलसफ़ा कभी आँखों से पढ़ाया होता

स्याह रातों का मुकद्दर ना देखो
आफ़्ताब कभी हाथों में उगाया होता

खुश्बू तेरा भी जिक्र करती बहार से
जो कभी बाग खिजां में लगाया होता

शब़नम की नमी लेकर सहरा की धूप में
वो शख्स कभी पसीने में नहाया होता
----------------------------

एक, मुट्ठी धूप

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

एक,
मुट्ठी धूप की तलाश में
पूरी जिन्दगी गुजर गई
हथेलियाँ नही थाम पायी अपने हिस्से में आई धूप
यादों के सिलसिले सी
बस बरसती चली गई मुसलसल
स्याह नम अंधेरों में घुली हवा
बुझा रही थी आग
जहाँ भी थी / जितनी भी

गुनगुनी धूप,
जब सरकी उंगलियों की दरारों से तो दरकती हुई
फिर मिल गई चमकती धूप में
मेरे हिस्से में रह गई
गदेलियों पर मखमली तपन
और उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-जून-२००९ / समय : १०:४४ / घर

सुबह का इंतजार

मंगलवार, 30 जून 2009

रात,
के बाद सुबह आती है
यह मेरा भी विश्वास था
अपने हिस्से की रात को किसी भी तरह
मैं बदल देना चाहता था सुबह में


सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया
सूरज जैसे निकलना ही नही चाहता हो अपनी माँद से
ना कोई भ्रम ना कोई संशय
ना कोई नर ना कोई कुंजर
यहाँ तक कि कृष्ण भी मेरे साथ नही कि फूंके पाञ्चजन्य
और सूरज को मेरे पक्ष में खड़ा कर दे आधी रात में
बस इंतजार का काज़ल आँखों में लगाये
जागना है सुबह तक
सूरज का इंतजार करते
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-जून-२००९ / समय : ११;३१ रात्रि / घर

भाग्य की तलाश

बुधवार, 24 जून 2009

भाग्य,
को तलाशा मैंने अपनी हथेलियों पर
फिर उन रेखाओं में खोजा
जो मेरे बचपन की किसी तस्वीर में तो हैं
फिलहाल नदारद
शायद घिस आई हैं

भाग्य,
को फिर तलाशा मैंने पेशानी पर
सलवटों में छिपी परेशानियाँ मिली
उलझनों की इबारत में दर्ज चिंतायें मिली
वो लकीरें जो दिख जाती थी
भौंहे सिकोड़ने पर कभी
फिलहाल नदारद
शायद बालों के साथ उड़ गई हैं

भाग्य,
को अंततः तलाशा मैंने कुंड़ली के खानों में
ग्रहों-नक्षत्रों का रचा जाल मिला
हर घड़ी बदलता पंचांग मिला
वह जैसे देवताओं के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया हो
विश्वामित्र की तरह
और, मैं नाहक ही खोज रहा हूँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-जून-२००९ / समय : १०:०२ रात्रि / घर

मकान में कैद घर

शनिवार, 20 जून 2009

दीवारों से घिरी चौहद्दी, जिसके ऊपर छत भी होती है एक मकान की शक्ल इख्तियार कर लेती है। जिसके तले सपने बुने जाते हैं.... तामीर होते हैं...... पराये अपने हो जाते हैं......परिवार बढता है......बचपन चहकता है......जवानी आती है......यह एक अदद मकान क्रमशः घर में बदल जाता है।

फिर एक दिन वो आता है जब यह मकान को बदलना होता है, एक-एक कर सारा सामान पैक हो चुका है। एक नज़र से फिर मुआयना होता है पूरे खाली मकान का कहीं कुछ रह तो नही गया है तब मैं किसी कोने में कोई कहता है मेरे कानों में :-

भीतर,
की ओर खुलने वाले
दरवाजों के बाद
दीवारें बदल जाती हैं
दालान में
जहाँ आज भी मेरा बचपन झांकता है
फिर शुरू होता है
आँगन जिसमें
गुनगुनी धूप बिछी रहती है
मखमल सी
चांदनी भी छिटकती है
जैसे हरसिंगार झरा हो झूमके
जहाँ मेरे जवान होते सपने भी
मिल जाते हैं
अक्सर रातों में तारे गिनते

खेतों,
की ओर खुलते रास्ते पर
मेरा कमरा
बाहर की ओर खुलती खिड़की
जिससे ताजा हवा झोंका
अब भी लगता है
लेकर आयेगा तुम्हारी खुश्बू
और मैं भीग जाऊंगा
झरोखे में कैद तुम्हारा अक्स
अब भी लगता है
बातें करेगा सुबह तक
मेरे सिर में उंगलियाँ फिराते हुये

क्या,
यह सब मैं
ले जा सकूंगा अपने साथ?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १५-जून-२००९ / समय : १०;४८ रात्रि / घर

जड़, होने के पहले

मंगलवार, 16 जून 2009

जब,
भूख नही लगती
पेट रोटियों से भरा रहता है
और नींद नही आती
गोलियाँ खाने के बाद भी
तब,
चेतना खोजने लगती है
जीवन के पर्याय

हथेलियों,
पर बनते बिगड़ते समीकरणों में
चेतन और अचेतन के बीच की रेखा
मिटने लगती है ललाट पर

जड़ होने की हद से
थोड़ा पहले ही चेतना
बदलने लगती है अतिविश्वास में
ज्ञान को उग आते हैं पर
च्यूंटियों की तरह
और आत्मा शरीर के अंदर ही
विलीन हो रही होती है
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-जून-२००९ / समय : ११:५२ रात्रि / घर

क्षितिज के पार

सोमवार, 8 जून 2009

शब्द,
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की

विचार,
छटपटाते हुये
ढूंढते रहे रास्ता बस
किसी तरह बह निकलने का

मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत
----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जून-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर

नवसृष्टी का प्रारंभ.......

शुक्रवार, 29 मई 2009

जब,
मुझे छोड़ना था
जीवन के इस पड़ाव पर
वो सब जो, सारी जिन्दगी जमा किया था
फिर किसी एक को साथ रख
तय करना हो शेष सफ़र

बड़ा,
मुश्किल था
चुनना किसे रखना है साथ
या किसे छोड़ देना है
धीरे-धीरे,
मुझमें साहस आया कि
मैं चुन सकूं
अपने विवेक बल पर

सबसे,
पहले वह छूटा
जो मुझे प्रिय था
शायद मैं त्याग की शुरूआत यहीं से करना चाहता था
इक इक को चुनने छोड़ने के बाद
मेरे लिये शेष बचा रहा
शून्य!

मैं,
स्तब्ध, अचंभित दुविधा में
कि जब सभी छूट गया है तो
फिर क्यों पकड़ना है
शून्य
और ढोना है शेष बचे सफ़र में

शून्य,
पैदा करता है विरक्ती
वैराग्य के चरम पर
फिर, जन्म लेता है मोह
और
शून्य के अमृतकुंभ से जन्म लेने लगते हैं
वो सब जिन्हें मैं त्याग आया था
जैसे नवसृष्टी के प्रारंभ की संध्यावेला हो
और मुझे निभानी हो भूमिका
"नूह" की
--------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-मई-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर

और, बर्फ पिघल जायेगी

शुक्रवार, 22 मई 2009

तुम्हें,
शायद मेरी बातों पर
यकीन नही हुआ होगा
तुम,
हमेशा कि तरह ही
सोच रही होओगी कि
मुझे इस बात से कोई
फर्क नही पड़ेगा
जब कोई तुम्हें कुछ कहता होगा
फिर, कुछ देर बाद
मैं खुद को उलझा लूंगा
कभी ना खत्म होने वाली
उलझनों में
और, तुमसे उम्मीद भी रखूंगा कि
भूल जाओ, जो भी हुआ है
केवल,
तुम अकेली ही लड़ती रहोगी
अपने-आप से


तुम्हें,
यह भी लगता होगा कि
ज़हर केवल तुम्हें पीना है
और जैसे बाकी सब
या तो तमाशाई हैं
या हँस रहे होंगे तुम पर
यहाँ तक की
मैं भी शायद
तुम्हारे दर्द को महसूस नही कर पाऊंगा
या कुछ हद तक
मेरा दिलासा तुम्हें
फिर खींच लायेगा मेरे बिस्तर पर
और बर्फ पिघल जायेगी
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-मार्च-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर

जब, गुम हो जाये लिपियाँ

गुरुवार, 14 मई 2009

मैनें,
कभी नही चाहा कि
जोड़कर अंजुरि भर लूँ
अपने हिस्से की धूप
और अपने सपनों को बदलने की
कोशिश करूं हकीकत में

मैनें,
कभी नही चाहा कि
आकाश मेरे लिये सहेज कर रक्खे
एक टुकड़ा छांव सुख भरी
सुकून बाँटती
जब मेरी पीठ से उतरती हुई
पसीने की बूंद
गुम हो जाये दोनों पैरों के बीच कहीं
और सामने पड़ी हो दूरियाँ नापने को

मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरे आस-पास आभामंडल बने
और मुझे पहचाना जाये
पास बिखरी चमक दमक से
जब मैं अपनी ही खोज में किसी कतार में खड़ा
आरंभ कर रहा हूँ सीखना
रोशनी कैसा पैदा की जा सकती है
खून को जलाते हुये हाड़ की बत्ती से

मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरा नाम उकेरा जाये दीवारों पर
या पत्त्थर के सीने पर
और वर्षों बाद भी जब गुम हो जायें लिपियाँ
मैं अपने नाम के साथ जिन्दा रहूँ
अंजानी पहचान के साथ
जबकि, मैं चाहता रहा
मेरा नाम किसी दिल के हिस्से पर
बना सके अपने लिये कोई जगह
और धड़कता रहे
किसी दिन शून्य में विलीन होने से पहले
-----------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-मई-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

सोयी सुबह - जागी रातें

गुरुवार, 7 मई 2009

आज,
सुबह उठते ही
मैनें महसूस किया कि
मन खिन्न है
वैसे कोई कारण सीधे सीधे नजर नही आता
पर उदासी छाई हुई है

ऐसा भी नही है
कि रात किसी ख्वाब ने लुभाया हो
और हकीकत के खर्राटों ने जगाते हुये
ला पटका हो अपनी औकात पर

ऐसा भी नही कि
भीगी यादों की खुश्बू से सजा बिस्तर
भर गया हो जागती सिलवटों से
और नींद उचट गई हो

ऐसा भी नही हुआ कि
सारी रात तेरी जुम्बिश से
चिपका रहा बिस्तर पर
और भोर में जागा हूँ भीगा भीगा सा

अब,
कुछ कहा नही जाता कि
क्यों सुबह में कुछ नया नही लग रहा है?
क्यों सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है ड़र?
क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३०-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर

प्रश्नों से भरा हुआ, आकाश

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

आकाश,
मेरे लिये सदा ही
प्रश्नों से भरा रहा
दिन की अंनत गहराईयों में
समेटे / लुढकते बादलों से प्रश्न
रात की कालिख़ पर
कभी टिमटिमाते
या कभी टूटते तारों से प्रश्न?

सुबह,
मेरे लिये सदा ही
एक कौतुहल सी रही
जिसमें रोज खोजना है
अपने आप को
रेत पर लिखे हुये नाम सा
या हवा से अलगकर कैद करना है
खुश्बू अपने हिस्से की

रात,
मुझे लिये आती है
अपने खूंटे को तलाशते
जानवर सी
हौज़ में तलाशती अपने होने को
या, ठंडी हवाओं में घुले हुये सपनों से
चुन लेना है अपना सच

फिर,
मैं बंटने लगता हूँ
सुबह और रात के बीच
अटके हुये आकाश में
जहाँ,
सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न है
रूप बदलते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 08-मार्च-2009 / समय : 10:43 रात्रि / घर

दिन, किस तरह कचोटता है

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हारी आँखों में
जमे हुये ख्वाबों को
और उनके इर्द-गिर्द स्याह दायरों में
दफन हो आई हसरतों को

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हारे चेहरे पर
झांईयों में बदल आये आत्मविश्‍वास को
और टूटे हुये विश्‍वास को
बदलते हुये झुर्रियों में

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हें कई बार
अपने वुजूद से लड़ते
टूट कर बिखरते हुये
फिर घुटनों पर सिर टिकाये
किसी कोने में सिमटते हुये

हाँ,
मैने सुना है
तुम्हारी सिसकियों में
दम तौड़ती शिकायतों को
और, गले में ही घुट के रह गई चीखों को
बदलते हुये हिचकियों में

हाँ,
मैने महसूस किया है
तुम्हारे कानों के आस-पास
सुने गये तानों की तपन को /
तुम्हारे चेहरे का रंग बदलते हुये
दर्द के उबटन से /
या टीस की सौंधी गमक को
तुम्हारे बालों से आते हुये

इतना,
करीब से जानने के बाद भी
तुम्हें शिकायत है मुझसे कि
मैं,
कभी नही समझ पाऊंगा
दिन किस तरह कचोटता है
तुम्हें
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर

सुकून से सोने के लिये

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

बाप,
जिसने देखी होती है
कम से कम बच्चे से ज्यादा दुनिया
और वह,
यह भी जानता है कि
जिन्दा रहने की जंग में
घर से बाहर निकलना ही पड़ता है
चाहे-अनचाहे

वही, बाप
जब किसी शाम बच्चा कहता है कि
मैं आया, थोड़ी देर में
तो, दागता है सवालों की बौछार
क्यों? जरूरी है क्या?
पैर घर में टिकते नही
क्या रखा है चौराहे पर?
तब, यह भी नही सोचता कि
अपने हिस्से की जंग में
उसे भी निकलना ही होगा
कभी ना कभी
बस यही उम्र है
जब तक बाहर नही निकलेगा तो,
सीखेगा क्या?

पूरी दुनिया,
नाप लेने वाला शख्स
जब बदलता है बाप में
तब उसे दिखनी लगती है
सड़कों पर भागती जिन्दगी
बेखौफ भागते ट्रैफ़िक से बचती हुई /
सड़कों पर जन्म लेते गड्‍ढे /
किसी मोड़ पर लूटे जाते हुये राहगीर /
ऐक्सीडेंट की दिल बैठाने वाली खबरें
तब वह,
बुनने लगता है एक दुनिया
घर की चारदीवारी में
अपने बच्चों के लिये
और,
ओढ लेता है अपने बच्चों के हिस्से की दुनिया
सुकून से सोने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-अप्रैल-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

एक आसिफ मिय़ाँ ही बचे हैं

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

एक,
आसिफ मिय़ाँ ही बचे हैं
और जो बूढे थे तो तस्वीर हो गये है
मोहल्ला तो करीब करीब लौंडो से भरा है,
दिनभर की मटरगश्ती / छेड़-छाड़
फिर देर रात चौराहे पर
सारे मोहल्ले की खत्म ना होने वाली छिछोरी बातें


एक,
आसिफ मियाँ ही है
तो मोहल्ले में जान है
जब भी मिलते हैं बिना किसी मलाल के
नसीहतें दिये जाते हैं
पूछ जाते हैं सारे घर के हाल
कमाई का हिसाब
पेशानी पे आयी सलवटों का /
या बढी हुई दाढी का सबब

एक,
वही हैं, जो बिना मतलब के ही
सलाम किये फिरते है
बाकी तो कोई किसी मतलब नही रखता
बस उन्हीं को रहती है
पूरे मोहल्ले की चिंता

सिरफिरे,
से हो गये हैं इन दिनों
शाम से ही बैठ जाते है
कब्रस्तान के मोड़ पर
और ना जाने किससे बातें करते है
वो भी किस जमाने की
जैसे वक्‍त टंक गया हो
तहमद पे पैबंद के साथ

सोचता हूँ,
कभी कभी वक्त निकालकर मिल लिया करुं
कुछ सीखने को ही मिलेगा
जिन्दगी की किताब का बहुत कुछ
अनकहा / अनपढा
कम से कम किसी इन्सान से कैसे मिला जाता है
यह तो सीखा ही जा सकता है
क्या भरोसा पके आम हैं
भला कब टिकेंगे डाल पर
फिर तो
उनके बाद हम में से किसी को ही
निभानी है जिम्मेवारी
मोहल्ले के बुजुर्ग की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२७ रात्रि / घर

मायने बदलता सच !

सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं,
जिन्दगी भर
यह मानता रहा कि
लोग सच बोलते हैं
हालांकि उम्र के
हर पड़ाव पर
सच के मायने बदले गये

मेरा,
सारा बचपन
इसी भ्रम में बीत गया कि
मुझे किसी कचरा-पेटी से लाया गया है
किसी जच्चाखाने से नही
फिर धीरे-धीरे यह समझ आ गई कि
मैं अपनी माँ का ही बेटा हूँ
वो तो किया गया मजाक था

मेरी,
जवानी में
मेरे बचपन की कोई तस्वीर
जिसमें मैं,
मासूम, भोला, सुन्दर दिखता हूँ
(वैसे सभी बच्चे मासूम/भोले/सुन्दर होते हैं)
छाई रही मेरी आँखों में
फिर मन में अपनी छाप छोड़
सच में बदल गई
मैं बड़ा होता रहा इसी सच के साथ

उम्र,
के इस पड़ाव पर
जब आईना दिखाता है
सच
मुझसे सहन नही होता
मेरे मन पर छाई
अपनी वही तस्वीर नकार देती है
आईने का सच
और, मैं यह मानने लगता हूँ कि
लोग सच नही बोलते है
यहाँ तक की आईना भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-मार्च-२००९ / समय : ०४:१५ दोपहर / घर

कण्डोम क्या होता है?

मंगलवार, 24 मार्च 2009

वो,
जब मुँह अंधेरे निकलते हैं
बाहर घर से
साथ होती है उम्मीदों भरी झोली
जिसमें कैद करने हैं
सारे सपनें और रोटी भी
कचरे के साथ

वो,
इस उम्र में भी सीख लेते हैं
वो सब और उन चीजों के बारे में
सभी कुछ
जिनके बारे में हमें बतियाते
अक्सर शर्म आती है

वो,
जब बिनते हैं कचरा
तो छांटते है, पहले
प्लास्टिक एकदम पहली पसंद पर
फिर पन्नियाँ / लोहा या और कुछ
इसी दौरान
उनके हाथ लगते हैं
इस्तेमाल के बाद फेंके हुये कण्डोम
कचरे के ढेर में
शायद पहली बार ठिठके होंगे
उनके हाथ उठाते हुये /
या कौतुहलवश छुआ होगा

बस,
यहीं से वो बच्चे सीखते है
कण्डोम, क्या होता है /
क्या काम आता है /
फिर वो सीखते है इस्तेमाल करना
और संस्कार हस्तांतरित होते हैं

यह,
सब सीखने के बाद
वह सीखते है कि
विकास के इस तेज दौर में भी
अभी नही ईजाद हुआ है तरीका
कण्डोम को इस्तेमाल बाद
डिस्पोज करने का

कण्डोम,
अब भी
रातों के अंधेरे में फेंके जाते है
कुछ इस तरह
जैसे कोई बच्चा उछाल देता है
पत्थर हवा में बिना किसी बात के
और यह भी नही सोचता कि
जिस आँगन में गिरेगा
वहां भी कोई बच्चा होगा
या कोई बस यूँ ही बहा देता है
फ्लश में और वह चोक किये होता है
ड्रेनेज घर से अगले मोड़ पर
या, यदि फेंका गया सड़क के उस पार
तो कचराघर को बदल देगा
जिन्दगी की पाठशाला में
और,
सीखने में मदद करेगा उन ब्च्चों की
जिनके घर नही होते
समय के पहले ही
कण्डोम क्या होता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मार्च-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

जूड़े में गुथे सवाल

बुधवार, 18 मार्च 2009

मैं,
जानता हूँ
तुम्हारे पास कुछ सवाल है
जो, अक्सर अनुत्तरित ही रह जाते हैं
मुट्ठी में बंद अनाज के दानों की तरह
जो सारी उम्र इंतजार ही करते रह जाते है
उनकी,
मिट्टी की तलाश पूरी ही नही होती

मैं,
यह भी जानता हूँ
कोई ऐसा अवसर नही होता
जब उनमें से ही कोई सवाल
रह-रहकर उभरता है
तुम्हारे चेहरे पर
फिर, कसमसोस कर घुट जाता है
तुम्हारे सिर झिटकने में /
या बिलावजह मुस्कराने में

मैं,
महसूस करता हूँ कि
वो सारे सवाल
जो नही कर पाये, जो जी में आया
रात को बिखरने लगते हैं
तुम्हारे तकिये पर
और तलाशते हैं वजूद अपना
तुम्हारी कुरेदी गई लकीरों में /
चादर में बुनी गई सिलवटों में /
या चबाये गये तकिये के कोने में
इसके पहले की
सुबह तुम फिर बटोर लो उन्हें
और,
गूंथ लो अपने जूड़े में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-मार्च-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर

पानी में बदली हुई आग!

गुरुवार, 12 मार्च 2009

तुम,
कैसे बदल लेती हो
सुने गये तानों को /
मिले हुये उलहानों को
तपन में
और पी लेती हो

फिर,
तुम बदलती हो
आग को पानी में
और,
जमा कर लेती हो
आँखों में

फिर,
तुम बनाती हो
रास्ता,
दिल से आँखों तक
कानों के बारास्ता

कि,
जो भी कचोटता है
तुम्हें
बस,
छलकने लगता है
आँखों से
और ढलकने लगती है
पानी में बदली हुई आग
गालों पर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-मार्च-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर

वो गाती है कोई गीत

सोमवार, 9 मार्च 2009

उस,
रात जब बादल में चाँद खेल रहा था
पूल में झिलमिलाते पानी पर उतराती
आग लगाती जवानी

वो,
शायद इस शहर में कभी
अपने नाम से भी पहचानी गई हो
उस, अंधेरे कोने में
जहाँ कोई किसी को भी नही पहचान सकता हो
वह,
सज संवरकर गाती है
गजलें / विरह भरे गीत
और, बटोर लेती है सहानुभूति
गुनगुनाते हुये

वो,
जो अपने गमों से बेजार
उतर जाना चाहते थे
कुछ घूंट नशे में थिरकने लगते है
भूलने लगते हैं
सबकुछ वो सब जो हुआ है
दिनभर

बस,
शाम है गुनगुनी /
पूल का पानी है /
थिरकती जवानी है ./
गुनगुनाती हुई वो है /
गले नीचे उतरता जाम है
बाकी जो भी था
वो या तो ठीक है या हो जायेगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-मार्च-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद

सोमवार, 2 मार्च 2009

तुम,
अक्सर मुझे आवाज देती हो
मैं जब भी उतर चुका होता हूँ
दो चार सीढ़ियॉ

फिर,
मेरे लौट के आने पर
भेज देती हो उल्टे पाँव
कहते हुये
रहने दो, कुछ नही बस यूँ ही

या,
कभी पूछ बैठती हो
मैं कैसी लग रही हूँ
यह साडी ठीक तो है ना
या बदल लूँ ?

मेरे,
पास कुछ जवाब नही होता है
उन सवालों का
ना ही कोई च्वाईस होती है
सिवाय गर्दन हिलाने के /
या हाँ - हूं-हां बोलने के
यह अलग बात है कि
मैं,
कुछ भी सलाह दूँ
होना तो वही है
जो तुम चाहोगी
अलबत्ता,
मुझे रायशुमारी का मौका तो मिलता है

कभी-कभी,
तो लगता है कि
तुम्हें क्या हो जाता है
ना जाने कहाँ के और कैसे सवाल आते हैं
तुम्हारे दिमाग में
जिनमें सीधे-सीधे तो कुछ नही / पर
पीछे बहुत कुछ छिपा होता है
वो, भी जब मैं
उतर चुका होता हूँ
दो-चार सीढ़ियॉ
तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद
-------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 27-फरवरी-2009 / समय : 11:28 रात्रि / घर

कोख के अंधेरों से

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

वो,
बिल्कुल भी नही जानता कि,
किसी को उसका इंतजार है भी या नही
कोख़ के अंधेरे छोड़कर
सह्सा किसी दिन देना है
द्वार पर दस्तक अनचाहे मेहमान सा

उसे,
यह भी नही पता होता है कि,
उसका जन्म उसका अपना प्रारब्ध है
या एक ढोयी जा रही मजबूरी
बस अंधेरों में किसी तरह
करना है इंतजार
माँस को बद्लते हुये जिन्दगी में

फिर,
धीरे-धीरे जिन्दगी ढलने लगती है
किसी शक्ल में
जिसे शायद वो तो नही जानता
पर पेट पर उसके आस-पास
अक्सर गूँजती है रह-रहकर
कोसती / मन्नते माँगती आवाजें

किसी,
दिन उसे सुनाई देती है
बडे जोर से आती गूंजे
दबाती उसे करीब करीब हर कोने से
जैसे कोई टटोल रहा हो
उसका वुजूद
फिर,
आने लगती है किसी के रोने की आवाजें /
किसी के गूंजने लगते हैं तानें

बस,
इसी वक्त वह समझ पाता है
वह केवल भ्रूण भर नही रहा
उसमें पड़ रही है जान
वह हो रहा विकसित किसी लड़की के रूप में
और, यह जो आवाजें गूंज रही हैं
फिर,
उसे पहुँचा देगी
उन्ही अंधेरों में /
किसी ऑपरेशन टेबल पर से
मेडिकल वेस्ट इंसिनरेटर में
या किसी नाले में
शायद इस चक्र से गुजरना है बार-बार
यदि वह अभिशप्त है
अपने हर जन्म में
लड़की होने को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-फरवरी-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर

छतों के सीने पर

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

कभी,
तो लगता है कि
मैं घर लौटता ही क्यूं हूँ
सिमटने को एक कमरे में
जिसमें भरा होता है
सामान इस कदर कि
बड़ी मुश्किल से किसी तरह खोजना होता है
अपने लिये कोई कोना
जहाँ मै फैल सकूं
कुछ देर सुकून के साथ /
बदल सकूं इंसान में

कमरे में,
सारी दुनिया फैली होती है /
करीने से सजा होता है
दिन भर का गुबार /
फूले हुये मुँह भर गुस्सा /
मेरे कद से बड़ी होती शिकायतों की फेहरिस्त /
शायद मेरा ही इंतजार करते आँसू

फिर,
मैं पहले बदलने लगता हूँ
पत्थर में
फिर दीवारों में धीरे-धीरे
जो ढूंढती हैं कंधा
छतों के सीने पर रोने के लिये
मेरे आँसू बदलने लगते हैं
छत में कैद सीलन में
जो,
दिन भर गवाही देती हैं कि
मैं कल रात था यहीं कमरे में
कुछ देर इंसान की तरह
मशीन में बदलने के पहले
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-फरवरी-२००९ / समय : ११;४० रात्रि / घर

धुंध से छाये ख्वाब़

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

मुझे,
बहुत देर लगती है
किसी ख्वाब से पीछे छुडाने में
आँख खुलने के पहले ही
छाने लगता हैं धुंध सा दिमाग पर /
दृष्टी पर छाया होता हैं
मोतियाबिंद के जाल सा

मुझे,
कई बार बदलना होता है
अपना रास्ता,
या यूँ ही भटकना होता है
सड़कों पर अजनबी सा देर तक
जब तक यह भरोसा ना हो जाये कि
मैं छोड़ आया हूँ ख्वाब को बहुत पीछे
भटकने के लिये

फिर,
पूरे रास्ते मुझे देखना होता है
मुड़-मुड़ के /
ठिठकना होता है सशंकित
ढूंढते अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को

वह,
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर किसी सूने से मोड़ पर तलाशता
जब मुझे यह लगने लगे कि
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
ख्वाब को
सच्चाईयों के पीछे भागते
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-फरवरी-२००९ / समय : १०:४५ / घर

वैलेन्टाइन डे - विशेष

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

हम,
जितना बचाना चाहते हैं
उतनी ही तेजी से बदल रहीं हैं
हमारी परंपरा

प्रेम,
अब भूलने लगा है
बसंती फूलों की भाषा
रट रहा है
लाल गुलाबों का ककहरा
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-फरवरी-२००९

मैं, डरता हूँ सच से

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

मैं,
डरता हूँ सच से /
बचना चाहता हूँ सामना करने से
और वह हर कोशिश करता है
मुझसे मुकाबिल होने की

सच,
से बड़ा बहरुपिया मैनें नही देखा
आज तक
हर बार मेरे सामने आता है
कुरेदता है मेरे जख्मों को
और,
फिर मेरी टीसों से झांकता है /
बहता है मवाद सा नासूर से

मैं,
डरता हूँ सच से
वह काबिज होना चाहता है
मेरे कंधो पर फिर उतर जाता है
मेरी बैसाखियों में बदल कर आवाज में
जो चीखती हैं मेरी आहट से पहले

सच,
कुछ भी नही रखता अपने पास
बख्शता नही किसी को भी
मैने बहुतेरी कोशिश की
झूठ के मेकअप से
लिखूं वो जिसे मैं कहना चाहता हूँ
आजकल,
वह मेरे आईने में उतर आता है
और
मेरी कनपटी पर लिखता है /
चेहरे पर टांकने लगता है झुर्रियाँ
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-फरवरी-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर

मुट्ठी से फिसलता सूरज

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

मैं,
सूरज को अपनी मुट्ठी में कैद
कर लेने की चाहत में
छोड़ देता हूँ घर
उस वक्‍त
जब सूरज कर रहा होता है
जद्दोजहद
क्षितिज पर बाहर निकल आने की

मेरी,
अपनी मुट्ठी में
उंगलियों के बीच
बहुत जगह होती हैं जहाँ से
मेरे हिस्से का सूरज
फिसल जाता है अक्सर मेरी पकड़ से
और अंधेरा फिर काबिज हो जाता है
जहाँ, मैने बसाया था रोशनी को

रोशनी,
दिनभर ढूंढती हैं
पेडों के बीच पसरी छांव /
चुल्लु भर पानी की ठंड़क /
मुट्ठी भर गुड़-चने की आस /
फिर थक-हार
चुहचुहाने लगती है पेशानी पर
और बदलकर पसीने में
समा जाती है धरती में

सूरज,
जब ठहरता है मुट्ठी में
थोड़ी देर को भी तो गदेलियों पर
उभरने लगते हैं छाले
जिनमें भरे होते है पिघले हुये ख्वाब
जो रात चांद का मरहम जमा देगा
और बदल देगा
उंगलियों के बीच की खाली जगह में
जहाँ से, अक्सर
फिसल जाता है कैद में आया
सूरज
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-फरवरी-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

समय से तेज चलती घड़ियाँ

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

शाम,
जो होने को आती है
ना जाने कहां से हाथों में तेजी आ जाती है
दिनभर सुस्त सा रहना वाला ऑफिस
सिमटने लगता है फुर्ती से

जेबों से निकलने लगती है
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ
तय होने लगते हैं रूट फटाफट
कंधों पर लटकने लगते है झोले
हैण्ड़बैग से बाहर आ ही जाती है थैलियाँ
किसी को लेने कोई आया है /
किसी को किसी का इंतजार है
और
घर सभी पर सवार होने लगता है

कोई,
रिव्यू नही होना है /
ना कोई प्लान था / ना कोई टारगेट है
सभी जैसे दफ्तर पहली फुर्सत में ही आये हैं
पंच / लंच और फिर पंच की क्रम में
किसे परवाह पड़ी है कि पूछे भी
कहां से चले थे सुबह और
कहां तक पहुँचे है
शाम, रंगीन है और रंगीन बनी रहे
इसलिये कोई किसी से कुछ पूछता भी नही

सरकारी,
दफ्तर है बस चलता ही रहेगा
सरका री का नारा टेबलों पर
दिखाता रहेगा असर
जब तक कुछ सरकेगा नही
कुछ भी नही सरकेगा अपनी जगह से
चाहे देश कितनी ही रफ्तार से बढ रहा हो आगे /
कार्पोरेट कल्चर झलकने लगा हो
इश्तेहारों में
सभी की घड़ियाँ दौड़ती हैं समय से तेज
सिर्फ ऑफिस में
-----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-फरवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर

मेरे हिस्से में चाँद आता है

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

माँ,
जब सपनों को झोंकती है
चूल्हे में तो रोती है झार-झार
मैं यह समझ नही पाता था
और माँ,
उम्मीदों को फूंकनी बना
आग को हवा देती थी

ना,
जाने कब रोटी का इंतजार करते
हम उनींदे से झोले खाते
तो मँ लोरी परोस देती
थपकियों के साथ
गोद में सुलाते

सुबह,
माँ घर से निकलने के पहले
हमें बताती की
रात तुम्हारी रोटी
हवा में उड़ आसमान में टंग गई है
आज रात देखना
कितनी बड़ी बनायी थी मैने तुम्हारे लिये

तबसे,
मैं जब भी देखता हूँ
आसमान में चाँद
मन उदास हो जाता है कि
कोई तो है जो आज भी
मेरे हिस्से की रोटी पर
अपना हक़ जताता है
और मेरे हिस्से में
या तो लोरियाँ आती हैं
या चाँद आता है.
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि ११:५० / घर

गण, पैसा और तंत्र

बुधवार, 28 जनवरी 2009

आज,
फिर मना गणतंत्र दिवस
सुबह से ही रेडियो चीख रहे थे
मॉल्स में भारी छूट मिल रही थी
देशभक्‍ति शीतलहर सी फैली हुई थी
स्कूलों से लड्‍डू खाये बच्चे लौट रहे थे
गण चौराहों पर बेच रहा था
एक रुपये में झंडा
जो कुछ देर तो जरूर हाथों में था
रस्मी तौर पर फिर.........

जिनके बाप के पास पैसे थे
उनके हाथ में झंड़े थे
तंत्र उनके साथ था
जिसके पास पैसा था
सुस्ता रहा था छुट्‍टी की दोपहर
और बचा हुआ गण,
पैसे पैदा कर रहा था
झंड़े बेचकर /
घरों से कचरा फेंककर /
या बदल कर भीड़ में
एक जून की जुगत में
जिंदाबाद / जयहिन्द बोल रहा था
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० दोपहर / पलासिया चौराहे पर

कुछ दिन बिस्तर पर

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

प्यारे ब्लॉगर्स साथियों

करीब दस दिन की अनुपस्थिती के बाद आज पहली बार आप सब चाहने / पढने वालों से मुखातिब हो रहा हूँ. इस बीच क्या हुआ क्या ना हुआ आप के समक्ष रख रहा हूँ.

हाँ एक बात बड़ी शिद्दत से कह सकता हूँ कि मैने अपने नेट/ब्लॉग परिवार को काफी मिस किया.

आपके स्नेह का आभारी

मुकेश कुमार तिवारी
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कुछ दिन बिस्तर पर

पता,
नही पैर में क्या हुआ था
सूजन ने केले के तने सा बना दिया था
एक सिम्पल सी ड्रेसिंग को क्या गया
कि उलझ के रह गया

ब्लड़शुगर ने कुछ नही किया
बेचारी नॉर्मल थी
ब्लड़ प्रेशर जरूर पारे के साथ
नदी-पहाड़ / छिया-छाई खेल रहा था
२१० / १५० कुछ ठहरने के बाद १९० / १४०

फिर,
सीने पर कसे जाने शिकंजे
कॉर्डियोग्राम जो होना था
दिल में जो भी था
बदल कर तरंगों में लिखने लगा
अफ्साना मशीन पर
उनकी नजरों में नॉर्मल था

कुछ देर बाद,
फिर खेली आँख-मिचौली पारे से
१९० / १३० के स्कोर पर
फिजिशियन की कुछ हिदायतों /
जरूरी परिक्षणों के निर्देशों /
दवाईयों की लम्बी फेहरिस्त थामे
कुल जमा दो सवा दो घंटों बाद बिदा लेता हूँ
और बिस्तर पर सिमट कर रह जाता हूँ

फिर,
यूरीन रूटीन / माईक्रोस्कोपिक
सी.बी.सी / थाईरॉइड / सीरम क्रिटानिन
फॉस्टिंग / पोस्ट पेरेन्डियल
और ना जाने क्या-क्या?
बस एक रूटीन सा बन आया हो
एक दिन छोड के ड्रेसिंग और
रोज ट्रांक्यूलाईजर्स के डोज
ब्लड़ प्रेशर की माप-जोख
फुर्सत ही कहां रही

आज,
कुछ ठीक लग रहा है
कुछ देर बैठ पाया हूँ सिस्टम पर
कि कह सकूं अपना हाल आपसे
इस बीच कई मेरे ब्लॉग पर आये
अपनी टिप्पणी लिखी
मेरे २ चाहने वाले बढे
किसी एक को मेरा लिखा पसंद नही आया

बहरहाल,
मैं अपने काम पर लौटूंगा
२७ जनवरी से
इस बीच बहुत कुछ सोचा है
लिखना बाकी है
और आप सभी को सुनाना शेष है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-जनवरी-२००९ / दोपहर : ४:३० / घर-बिस्तर पर

लड़कियाँ तितली सी होती हैं....(नई कड़ी)

बुधवार, 14 जनवरी 2009



मेरी अपनी एक पुरानी कविता "लड़कियाँ तितली सी होती हैं" जो कि ब्लॉग "कवितायन" http://tiwarimukesh.blogspot.com पर २५-नवम्बर-२००८ को प्रस्तुत की गई थी. उसकी अगली कड़ी में अपनी भांजी "जान्हवी" (पुत्री : विभा-राजेश) के जन्म के साथ मुझे यह पंक्‍तियाँ और सूझी :-

लड़कियाँ,
गोद में हों तो गुलाब सी लगती हैं
घुटनों पर चलता ख्वाब लगती हैं
जो मुस्कुराये तो मन मोह ले
जमीं पर उतरा माहताब लगती है

लड़कियाँ,
जब आती हैं तो,
बदल जाती है दुनिया
आँगन में झरती चांदनी लगती है
रातों में महकती बगिया लगती है

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जनवरी-२००९ / समय : १०:०१ रात्रि / विभा के घर

कुछ अधूरे प्रश्‍न

सोमवार, 12 जनवरी 2009

यह,
जरूरी तो नही कि
हर पूछे गये प्रश्‍न का जवाब दिया जाये
या यदि लगा हो प्रश्‍नचिन्ह
क्यों?
तो उससे हरसंभव छुटकारा पाया जाये
कभी,
मौन से अच्छा उत्‍तर कोई नही होता
कभी,
पूरी जिन्दगी कम पड़ती है बयां करने में
क्यों?
एक प्रश्‍न नही होता अपने आपमें
मुकम्मल
सिर्फ बौखलाहट है प्रश्‍नों की

एक,
सीमा होती है जहां तक ही
सहा जा सकता है प्रश्‍नों को
या तलाशा जा सकता है जवाब
जब कचोटने लगते है प्रश्‍न तो
फिर, नकारा जाने लगता है

प्रश्‍न,
जब कुलबुलाते हैं अंतर
तब क्यों? आकार लेता है
और टोह लेता है जवाब की
फिर, यह उम्मीद क्यों
कि हर कि क्यों के बाद
आवाज गुम नही हो जायेगी
सन्नाटे में
बल्कि, लौटती रहेगी
अनुगूंज बनकर

क्यों?
कुछ प्रश्‍न रह जाते है अधूरे
क्यों?
हर प्रश्‍न का जवाब नही होता
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-जनवरी-२००९ / समय : १०:१७ रात्रि / घर

किसी दिन अपनी बारी पर

शनिवार, 10 जनवरी 2009

मेरे सामने,
दिनभर वही डरावने प्रश्‍न थे
जिनके उत्तर?
शायद मैं खोजना ही नही चाहता था
बस यूँ ही भागते हुये सच से
मैं बचना चाहता था
अपनी जिम्मेवारी से

मुझ,
पर जैसे सुबह से ही सवार था
खौफ
कि / मुझसे कुछ पूछा जायेगा
जाना - अंजाना सा
यह उम्मीद रखी जायेगी कि
मेरे पास उन सारे सवालों के हल होना चाहिये
जो मेरे दिमाग में भी आते है
जब मुझे पूछने होते सवाल
और किसी को देना होता है जवाब

दिन भर
के रूटीन में कई-कई प्लान
को रिव्यू करते हुये
कभी पहियों वाली कुर्सी पर
घुमते हुये / या सरकते हुये
किसी पर बिना वजह भी
कभी उखड़ते / चिल्लाते / झल्लाते हुये
मैं महसूस नही कर पाया
कि जब मूझे टेबल के उस पार से
दुनिया देखनी होगी किसी दिन
कैसी दिखाई देगी?
क्या मेरे शब्द खो देगें रफ्तार?
मेरी टाँगों में होने लगेगा कंपन?
क्या वो आसमान जहाँ मैं उड़ा करता हूँ
उतर आयेगा जमीन पर?
कोई और होगा मुझसे भी ऊँचे
सुर्ख आब से परों वाला जिसे चुगाना होगा मुझे
सर-सर कहते हुये

और,
यही सच स्वीकारने के पहले मुझे
किसी जमीन वाले पर
बिना वजह चिल्लाना पड़ेगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-जनवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर

तंग सी गलियों में

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

वो,
तंग सी गलियों में ही कहीं रहती है
गुम सी
होठों को सिले हुये /
सपनों की पैबंद दामन पर टांके
जिन्दगी की उधड़न को
सफाई से करती तुरपई

जैसे,
उसे खुद ही सिमट आना हो
सिकुड़्ते हुये परछाईयों की तरह
पकड़ते हुये उलझनों को
छोड़ती जाती है जिन्दगी /
या वो बातें जो अहम हो सकती है
जिन्दा रहने से भी

वो,
उन्हीं तंग / सीलती गलियों में
किसी दिन हो जाना चाहती है
गुम सदा के लिये
जैसे, बड़ी / चौड़ी सड़कें गुम हो आई थी
शहर के माथे से
और एक दिन बदल गई थी तंग गलियों में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-जनवरी-२००९ / समय : १०:२५ रात्रि / घर

खुली हवा में साँस

बुधवार, 7 जनवरी 2009

मैं,
ढूंढ्ता हूँ कोई ना कोई मौका
जब भी मिले घर से बाहर निकलने का
कुछ देर खुली हवा में सांस लेने का

घर,
में तंग करती हैं दीवारें
दीवारों के बीच पल रहे दायरे
खिड़कियाँ जो
दरवाजों सी बंद हो जाती हैं
हर कमरे में बसा होता है अंधेरा
रिश्तों में लगी होती है सीलन

तब,
बाहर निकलते ही घर
सवार हो जाता है मेरे स्कूटर पर
कान पर बस बजता ही चला जाता है
बिना रुके
जैसा घाटियो में गूंजता है संगीत
या कोई अनचाहा गीत

और,
मैं तंग आकर फिर लौट आता हूँ
घर
पसर जाना चाहता हूँ
घर के खालीपन में
उन्ही दीवारों में तलाशता
अपना वजूद
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जनवरी-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

आदमी का बंटना जारी है

सोमवार, 5 जनवरी 2009

बच्चा,
जब पैदा होता है,
तभी से बंटने लगता है खेमों में
कभी तो अजीब से लगता है कि
अभी पैदा हुआ बच्चा,
कैसा बांटा जा सकता है?

वो,
बांट लेते है
पैदा होने के तरीके से
नार्मल / सिजेरियन / सीधा या उल्टा
फिर, बच्चा बंटने लगता है
गोरे / काले / सांवले / कमजोर / स्वस्थ्य में
और बंटना जारी रहता है

फिर,
उसे बांटा जाता है
पैदा होने के नक्षत्र / वार / तिथी के हिसाब से
सर्दीहा या गरम कोठा है
उसके बंटने को नया आयाम देते है

अब,
उसे बांटा जाता है
पढाई में तेज या कमजोर के भाग में
खेलने वाला या किताबी कीड़े
के रुप में

बड़ा,
होते होते इतने खेमों में बंटने के बाद भी
वह बांटा जाने लगता है
जाति / धर्म / पंथ / संप्रदाय के नाम पर
उसके विचारों से
सुधारवादी है / रुढीवादी है
उसके पेशे पर तो
बंटवारा होना अभी शेष है

वह,
आदमी जो पूरी जिन्दगी खेमों में बंटा रहा
फिर बांटा जाता है
शारीरिक विषमताओं से
मोटा / पतला / झुकी कमर / लंगड़ा /
काना / या ऊंचा सुननेवाला

जिन्दगी भर,
टुकड़ों में बटां आदमी
जब कहीं निकाल पाता है मौका
झिड़ककर सारी पहचानों को
अपनी कोई अलग पहचान बनाने का

तब,
काँग्रेसी / भाजपाई / संघी / सर्वोदयी /
कॉमरेड़ / समाजवादी
से टैग ढूंढ्ते हैं कोई खाली कोना
चस्पा होने के लिये उसके माथे पर
और / फिर
वह बंटने लगता है
इंदिरा - राष्ट्रवादी / अटल गुट - आड़वाणी गुट /
भाकपा - माकपा / लोहिया - गैर लोहियावादी में
बंटना अब भी जारी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-दिसम्बर-२००८ / समय : ०६:५० सुबह / घर

तारों में बदले हुये ख्वाब

शनिवार, 3 जनवरी 2009

मैं,
रात के कच्चे और अधूरे ख्वाबों की
पोटली बना
जब सुबह को सूरज का इंतजार था
निकल पडा़ था
अपनी कुल्हाड़ी लिये

मैं,
चीर लेना चाहता था
अपने हिस्से का सूरज
वहीं,
जहाँ वह छोड़ता है जमीन की दहलीज को
और उठता चला जाता है
आसमान में

मैं,
पका लेना चाहता था
अपने ख्वाबों को
सूरज की आँच में /
अपने हिस्से की आग से
और लौटना देर रात
ख्वाबों को बदल कर बीज में
बोना चाहता था दिन के सीने पर

मैं,
देखना चाहता था
ख्वाब बदल कर तारों में
चमकते हैं मेरे हिस्से के दिन में
और
मैं छोड़ देता हूँ डरना
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-जनवरी-२००९ / समय : रात्रि ११:१० / घर

कल जश्‍न था रात भर

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

रात,
भर के जश्‍न के बाद
सुबह कॉलोनी की सड़कें भरी हैं
बिखरी हुई पेपर प्लेट्स /
खुले हुये कॉर्क /
कुछ खाली बोतलें /
पटाखों के खाली कव्हर्स से
हवा में तैर रहे हैं
रात लिये गये संकल्प

दिन,
चढ आया है
नये वर्ष का सूरज आसमान में
लिख रहा है नयी इबारत
लोग,
अभी भी रजाईयों में दुबके हैं
गर्म सपनों के साथ
सभी ने अपने दिन ढकेल रक्खे हैं
जेब के पीछे या गर्दन के नीचे

यह,
सुबह कोई नई सुबह नही है
कुछ भी नया नही है
आज भी भूख जाग आयी है सुबह से ही
जैसे उसे कोई फर्क नही पडा़ हो
नये साल की सुबह हो या कोई और
आज,
फिर छोड़ना है बिस्तर /
वही झोला टाँग लेना है /
बस बीनते हुये कचरा दिन मुकम्मल करना है
शुक्र इतना है कि
कल रात नये साल का जश्‍न था
गलियाँ आबाद है कचरे से
कल सुबह अगर, मैं
देर से उठूं तो चल सकता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३१-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:५५ रात्रि / घर