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गिरफ़्त में धड़कती जिन्दगी

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

जिन्दगी,
तब भी धड़क रही थी
जब कैद में थी
भाषा और रंग के भेद को तोड़ती
जिन्दगी बस एक जिन्दगी थी
और किसी भी कीमत पर जिन्दा रहना चाहती थी
जबकि बाहर बंदूके चल रही थी
हैण्ड ग्रेनेड बरस रहे थे
जो भी चपेट में आये
टपक रहे थे

ताज,
जहाँ जिन्दगियाँ ढूंढती थी अपनी पहचान
गुम हो जाने की हद तक
ओबेराय,
जो सिर्फ़ एक ऐसा पता होता था
कि जिसके आगे कुछ और
पूछने की हिम्मत कोई नही करता था
करीब सवा-साढे छः फ़ुट के दरबान
गालो तक फ़ैली हुई मूछें
ऐसा करारा सेल्यूट कि रूह कांप जाये

कितने थे /
कितने मरे या घायल हुये
यह तो पल पल बदलता रहा
पर जिन्दगी कैद में रहकर भी
मुस्कुरा रही थी
जिन्दा थी बाहर निकल आने की चाह
कुछ पल दहशत के बाद जैसे
जिन्दगी सवार हो गयी थी ड़र पर
आग, धमाके और मौत की खबरें
नही डिगा पायीं थी विश्‍वास जिन्दगी का
और जिन्दगी लड़ती रही मौत से

वो,
लड़ते रहे / झूलते रहे जिन्दगी और मौत के बीच
जो शहीद हो गये
उनके नाम मैं दोहराना नही चाहता
नमन अवश्‍य करता हूँ
आप भी अपनी श्रृध्‍दांजलि जरूर दें
कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं
अपने घर में सुरक्षित बैठे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / मुम्बई में आतंकवादी हमला