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कोई जिन्न होता है सवार

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

कभी,
सनसनी सी महसूस करता हूँ
कोई दौड़ती हुई मुझमे
किसी भी वक्‍त
कोई सुबह हो / दोपहर हो या रात
तो यह लगता है कि
कोई जिन्न होता है सवार
या कोई भूत लगा होता है
शरीर को जैसे कोई सुध नही
ना ही कुछ अच्छे बुरा का ख्याल आता है

बस,
यही एक कसर बाकी होती है कि
आंय-बांय नही बकता
ना ही चीखता हूँ रह-रहकर औल-फौल
कपडे़ भी सलीके से ही पहने होते हैं
बस कूछ ध्यान नही रहता
जो भी घट रहा हो आस-पास
जैसे गुम सा मैं किसी ख्याल में
बस उलझा रहता हूँ
अपनी कलम के साथ

लोग,
कहते हैं कि
मुझे कुछ हो जाता है
जब दौरा पड़ता है
ना खुद का होश होता है
ना जमाने की खबर
बस डूबा होता हूँ ख्यालों में

जब,
लौटता है होश तो
पाता हूँ किसी पन्ने पर
लिखा है कुछ किसी ने
वो कहते हैं कि
मैं, कविता लिख रहा हूँ इन दिनों
और बस हैरान रह जाता हूँ मैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४० / घर

2 टिप्पणियाँ

Ajit Singh ने कहा…

कविता एक ऎसी विधा है जो एक बार यदि किसी ने लिख दी तो फिर वो उसके हाथ से चिड़िया की तरह फुर्र हो जाती है... फिर कविता के मायने लेखक नहीं, पाठक तय करता है... आपकी इस रचना में इस विचार की धमक सुनाई पड़ती है.

http://sarjna.blogspot.com/

29 नवंबर 2008 को 11:50 pm बजे
Unknown ने कहा…

कविता के जन्म से पूर्व की प्रसव पीड़ा को बहुत सुन्दर ढंग और ईमानदारी से अभिव्यक्ति देती आपकी यह कविता भी आपकी अन्य रचनाओं की तरह पठनीय और प्रशंसनीय है।

28 दिसंबर 2012 को 9:56 pm बजे