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कोई जिन्न होता है सवार

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

कभी,
सनसनी सी महसूस करता हूँ
कोई दौड़ती हुई मुझमे
किसी भी वक्‍त
कोई सुबह हो / दोपहर हो या रात
तो यह लगता है कि
कोई जिन्न होता है सवार
या कोई भूत लगा होता है
शरीर को जैसे कोई सुध नही
ना ही कुछ अच्छे बुरा का ख्याल आता है

बस,
यही एक कसर बाकी होती है कि
आंय-बांय नही बकता
ना ही चीखता हूँ रह-रहकर औल-फौल
कपडे़ भी सलीके से ही पहने होते हैं
बस कूछ ध्यान नही रहता
जो भी घट रहा हो आस-पास
जैसे गुम सा मैं किसी ख्याल में
बस उलझा रहता हूँ
अपनी कलम के साथ

लोग,
कहते हैं कि
मुझे कुछ हो जाता है
जब दौरा पड़ता है
ना खुद का होश होता है
ना जमाने की खबर
बस डूबा होता हूँ ख्यालों में

जब,
लौटता है होश तो
पाता हूँ किसी पन्ने पर
लिखा है कुछ किसी ने
वो कहते हैं कि
मैं, कविता लिख रहा हूँ इन दिनों
और बस हैरान रह जाता हूँ मैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४० / घर

सत्य बोले गत्य है

सोमवार, 24 नवंबर 2008

मैने,
जब शुरुआत की थी
यही कोई सोलह-सत्रह बरस का था
घर से निकला था पहली बार
और शामिल हुआ था
किसी शवयात्रा में

अपने हर कदम पर
जैसे मैं धंसा जा रहा था जमीन में
ना जाने क्यों मुझे उम्र से बडे होने का
अहसास दबाये जा रहा था
मैं ना गर्दन उठा पा रहा
ना नज़रे मिला
आवाज गले में रुंधी थी
सत्य बोलो गति है का दोहराव
मेरे अपने कानों तक नही सुना जा रहा था

धीरे-धीरे
मेरा कॉन्फ़िडेन्स बढा
और शर्म खत्म सी होने लगी थी
फ़िर भी बडा अटपटा सा तो लगता ही था
किसी शवयात्रा में शामिल होना
और जोर से दोहराते रहना
सत्य बोले गत्य है
हालांकि
अब भी राम नाम सत्य पुकार लेने का ख्याल
रूंओ को उठा देता था

फ़िर,
आदत सी हो आई थी
अब तक मैं सीख चुका था
कैसे खबर करनी है रिश्तेदारों को /
कैसे भाव लाना है चेहरे पर /
कहां मिलता है सामान /
कहां बस बुक होती है या बैण्ड़ /
तख्ती कैसे बांधी जाती है /
कब करनी होती है कपाल क्रिया /
कैसे मिला जाता है परिचितों से
किसी शवयात्रा में /
अब,
मुझे बडा अजीब सा लगता था
लोगों का श्रृद्धांजलि देना शोक-सभा में
किसी मंजे हुये खिलाड़ी की तरह

अंततः,
मैं सीख ही गया
कैसे ऑर्गनाइज्ड़ होती है अंतिम यात्रा
कैसे निपटाये जाते है उपकर्म
अस्थि संचय / तीसरा /
गरुड़ पुराण कब बैठाना है
दसवाँ / नारायण बली / तेरहवीं का भोज
दान दक्षिणा की कार्यवाही

एक,
दिन अचानक मुझे खड़ा कर दिया गया
देने को श्रृद्धांजलि
किसी तरह लड़खड़ाते मैने
निभा दिया जिम्मेवारी की तरह
फ़िर कुछ और मौको के बाद
मैने
सीखा गीता के श्लोकों को /
मानस की चौपाईयों को /
सूक्तियों का सहारा लेना /
राम का सत्य और गति से सबंध जोड़ना
बिना शर्माये या घबराये कैसे बोलना है
और,
अपने आप को पारंगत कर लिया
समाज में रहने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / सुभाष मिमरोट की अंतिम यात्रा के बाद

अपने नाम की खोज

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

किसी नाम को,
रखे जाने का मतलब
कि किसी पहचान को बांध लेना जिन्दगी से
और ढोते रहना मज़बूरी की तरह
यह क्या कि जो जड़ दिया गया हो बिना पूछे
बस चिपका रहे सारी जिन्दगी

अपने,
नाम को लेकर मैं खासा परेशान रहा
मुझे अक्सर लुभाते रहे दूसरों के
जैसे चिढ सी हो गई हो अपने नाम से
बिना किसी मतलब का
कोशिश,
बहुत कि हो कोई अच्छा सा नाम /
कोई सुन्दर पुकारने वाला /
जो मेल खाता हो चरित्र से /
कोई ऐसा नाम जो आजकल के ट्रेण्ड़ में हो
मॉडर्न / ट्रैण्डी / फ़ंकी सा

अपने,
नाम के कई हिस्से किये
नये विन्यास बनाये
फ़िर खोजा अपने आप को
फ़िर हिज्जों में तोड़ा
नये शब्द बनाये
और उनके मतलब में खोजा अपने आप को
उच्चारण बदले /
अंक शास्त्र में तलाशा /
कई जुबानों में पुकारा /
नये अंदाज में भी
अपने नाम से मैं कुछ विशेष नही कर पाया
रहा वही बिना मतलब का
ना मुझे डिफ़ाईन करता है ना मेरे होने को

अगली,
फ़ुरसत में खोजियागा कोई नाम मेरे लिये
और दे दीजियेगा मुझे कोई पहचान
अपने मतलब की
मैं,
पूरी जिन्दगी में अपनी पसंद का नाम नही रख पाउंगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-नवम्बर-२००८ / रात्रि : ११:२५ / घर

लकड़ी सहेजती है आग!

शनिवार, 15 नवंबर 2008

बीज,
जब नही सह पाता है
तपन ज़मीन में गहरे
तो बचता बिखरने लगता है
जड़ों के रुप में
और जो बच जाता है
तोड़ कर जमीन निकल आता है बाहर
जान बचाता, आग सीने से लगाये
सीधा, टेढा या बांका

पौधा,
जब दिन भर तपता है धूप में
केवल अपने लिये भोजन (प्रकाश संश्‍लेषण)
नही बना रहा होता है
ना ही पैदा कर रहा होता है ऑक्सीजन
बल्कि तपन पी रहा होता है
और बची हुई तपन को बदल रहा होता है आग में
सहेजने के लिये

पेड़,
अपने जीवन चक्र में
ना जाने कितनी बार
रौंदा गया होता है या काटा
कभी शाखों से कभी तने से
कभी छांटा गया होता है
या नोचा गया होता है
बिना किसी मुर‍वव्त के
कभी टहनी से, कभी पत्तियों से
अपनी हर चोट के दर्द को जब्त कर
पेड़ बदल लेता है आग में
और दफ़न कर लेता है सीने में

लकड़ी,
में जब बदल जाता है पेड़
तब भी आग बचा कर रखता है
अपने अंतर यूँ ही खत्म नही होने देता
श्‍नै श्‍नै यह आग समा जाती है
लकड़ी के हर रेशे में और बसी रहती है कि
वह जब इस्तेमाल हो
चूल्हा जलाने में या चिता
तो कभी नही चूके
एकदम न्यौछावर कर दे अपनी उम्र भर की पूँजी आग
फ़िर बदल जाये राख़ में
उड़े हवा में लिये हुये तपन अपने साथ
और रख दे धरती के सीने पर
जहाँ कोई बीज छटपटा रहा है
तोड़ने को धरती सीना
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:०५ / घर

अटारी से झांकता सूरज

बुधवार, 12 नवंबर 2008

सूरज,
क्षितिज की अटारी चढ झांकने लगा है
आसमान पर फ़ैलनी लगी सिन्दूरी आग
सुबह की पहली किरण ने
अभी अभी रखा है कदम धरती के सीने पर

मेरी,
मुट्ठी में कैद हुई
नर्म सी गर्माहट हथेलियों के बीच
पका रही है सपनों को
अब सूरज देखने लगा है मुझे
बादलों के झुरमुट से झांकते
और रोशनी भिगोने लगी है

कुछ,
देर उछल-कूद के बाद
थका सूरज अब ठहर आया है मेरे साथ
और मुझे विश्‍वास दे रहा है
बदल रहा है आशाओं को पसीने में
और पसीने को संकल्पों में

थका-हारा,
सूरज अब समेटने लगा है
दिनभर के फ़ैलाव को
और उतरने लगा है सीढीयाँ
सिर से अटारी और फ़िर
डुब जाता है गहराईयों में
देते हुये संकल्पों को सपनों की शक्ल
शाम को जगा जाता है हौले से

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४० / घर

च्यूईंगगम में बदले हुये दिन

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

दिन,
सिमटते आ रहे हैं घण्टे में /
टूट रहे है मिनिटों में /
और सूक्ष्म ईकाईयों में
जहाँ तक मापा जा सकता है समय को
मन,
नही रख पा रहा है काबू
अपने आप पर
जैसे पंख लगा कर उड़ जाना चाहता हो
तौड कर सारी बेड़ियों को
या फ़ूट कर निकल आना चाहता है
किसी चट्टान के सीने को
आवारा बीज की तरह
सभी कुछ, अपना
बस छूटने को आया लगता है
दीवारें पी लेना चाहती हैं गुजारा हुआ वक्‍त
छत झुकी आ रही है सीने से लगाने
जमीन, सारी यादों को समा लेने के लिये उतावली है
सारे रिश्ते बस उतनी ही देर के हैं
ज़ब तक साँस लेनी है यहाँ
दिल,
पालने लगा है
कुछ सुनहरे से ख्वाब
और कल्पनाओं को पालने में
आशायें दे रही है झूला
उम्मीदों की लौरियाँ गाते
और दिल अंजुलि भर खुशियों में
डूब जाना चाहता है
रातें,
छोटी होती आ रही हैं
और सुबह, नींद में ही दस्तक देने लगी है
दिन बदल गये हों च्यूईंगगम में
कि खत्म ही नही होते
दुल्हन की तरह हम
बस बारात के आने की ख़बर ले रहे हैं
या कर रहे हैं बिदाई की प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:१५ / घर

बाप के साथ रहते

सोमवार, 10 नवंबर 2008

बाप,
के साथ रहते मैं सदा बेटा ही बना रहा
क्ब बड़ा हुआ?
कब सीखा दुनिया देखना अपने चष्मे से?
कब इतना बड़ा हो गया कि
बाप के कपड़े,
जिनमें पूरी ज़वानी गुजर गई
अब छोटे पड़ने लगे?

कब नौकरी लगी?
कब शादी हुई?
कब मेरा परिवार बना?
कब कोई नन्ही ज़ान हमारे बीच आ गई
कब मैं बाप बना?
पता ही नही चला

बाप,
के साथ रह्ते
ना कभी बड़ा हो पाया
ना बड़ा माना गया
सदा बेटा ही बना रहा
बाप बना
पर बाप नही हो पाया /
पहचाना नही गया

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०३-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : ११:१५ / घर

वो, आदमी नही रहा

शनिवार, 8 नवंबर 2008

यह क्या हुआ?
अचानक कि आदमी की
पहचान खत्म हो गई
उसका नाम/काम सब खो गये
और वो
पहचाना जाने लगा है
नये ही प्रकार से

कहीं से भी गुजरो
चाहे पहचान हो ना हो
हर कोई पूछ लेता है
कि क्या हाल है?
कैसा चल रहा है?
घर में सब ठीक तो है
बच्चे, भाभी वगैरह?

उसकी,
पहचान लौट रही है मनुवाद के दौर में
अब पहचाना जा रहा है उसे
जाति से / समाज से
और किसी जादू-तमाशे की तरह
बांटा जा रहा है
जाति/धर्म/वर्ण/वर्ग के आधार पर
किस जाति का है?
किस समाज का है?
कितने लोग उसके साथ है?
या फ़िर आंका जा रहा है
उसकी न्युइसंस वैल्यू पे

कोई खास वजह नही है
इन बदलावओं की
बस, चुनाव सिर पर है
और वो,
आदमी नही रहा
मात्र एक मतदाता(वोटर) रह गया है.
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०८-नवम्बर-२००८ / समय : ०१:०० दोपहर / ऑफ़िस

सिमटती हुई दीवारें

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

दीवारें,
सिमटी आ रही है
गलियाँ बिदक रही है
चौराहे बचते फ़िर रहे है
चुनाव के दिन है
खद्दर वाले भिया के सांड खुल्ले घूम रहे है

दीवारें,
अपने बदन को ढांप रही है
कि कंही नजर आया तो
मुँह काला किया बिना छोड़ेगें नही
गलियाँ,
गुम हो जाना चाहती हैं
मकानों में कहीं
कहीं दिखाई दे गई तो
रंगे बिना छोड़ेगें नही
चौराहे,
चाह के भी कुछ नही कर पा रहे हैं
एक टाँग ढांकते है तो
दूसरी उघड़ जाती है
कितना भी बचायें अपने आप को
छुट्टे सांड मुँह मार ही जाते हैं

आप,
कितना भी बचो
सुबह की शुरुआत हो या थकी शाम
चाहो ना चाहो वो चेहरे किसी
अनचाहे मेहमान से आ धमकेगें मुस्कुराते हुये
और खराब कर जायेगें
तुम्हारे मुँह का स्वाद वोट मांगते हुये
या झांकते मिल जायेगें
अख़बार से तुम्हारी सुबह में
और कुछ ना पढने देगें
ना सनसनी, ना सुर्खी
या कोई दरक आयेगा बंद दरवाजों के नीचे से
या उड़की हुई खिड़की कोई थपियायेगा
देर रात किसी रिकार्डेड आवाज से झुंझला देगा कोई

कितनी बार यह लगेगा
कि यह चुनाव हो रहे हैं या
बारिश का मौसम है
जहाँ,तहाँ, चाहे, अनचाहे जगह
उग आ रहे हैं कुकुरमुत्‍ते
और तुम कुछ नही कर पा रहे हो
सिवाय अपने भाग्य को कोसने के
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-नवम्बर-२००८ / समय : ०४:१५ / ऑफ़िस

कपड़ों का कमतर होना

बुधवार, 5 नवंबर 2008

मैं,
इसे डेव्हलपमेंट कहूँ/
बेशर्मी की हद/
या दिमाग बंद कर की गई नकल
खैर जो भी हो
यहाँ जो हमारा था
वो सिमट रहा है

फ़ैशन
जिसमें नंगाई सिर चढ़ कर बोल रही है
अब उस किस्म की अंग्रेजी फ़िल्में
जो देखी तो जाती है पर समझी नही
उतर आयी है सड़कों पर
कपड़े कम से कमतर हो रहे है
लो वेस्ट हों या शार्ट हों या मिनी
या उसके आगे की कोई इकाई
मिनिमल होते जा रहे हैं
गिरते चरित्र के साथ
कपडे़ उपर उठ रहे हैं
या उपर से सरक रहे हैं

बच्चों
से हूई शुरुआत
अब ढालने लगी है आदतें
यह कपड़े अब बच्चें पहने या बड़े
पहनने वाले को कोई फ़र्क नही पड़ता
अलबत्ता देखने वाला
यदि जी रहा है गुजश्ता सदी में तो
झुका लेता है सिर या फ़ेर लेता है आँखे
और यदि अभ्यस्त है तो झांकने लगता है और गहरे
या कामना करने लगता है
तेज हवा चलने की/
अचानक बारिश होने की/
या सिलाई के टूटने की

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४५ / घर

हम नही बदले हैं

सोमवार, 3 नवंबर 2008

हम,
नही बदले हैं
चाहे ज़माना बदल रहा हो
या हालात
हम रहे खालिस के खालिस
बिल्कुल नही बदले

भुस,
पर चढी खाल
भला कभी बदली है जानवर में?
मुल्लमों ने कहीं बदली है तासिर किसी की
या पानी चढा़ देने से लोहा बदला है सोने में
हम वही के वही है
जो थे, जैसे थे खालिस के खालिस

हम,
कभी एक नही रख पाये
अपने आप को
सिर तलाशता रहा ताजपोशी के मौके
जहाँ भी मिले
और कंधे बचते रहे जिम्मेवारी से
सदा रहे अंतिम कतार में

हम,
जब भी कसे गये हो कसौटी पर
या उठाया हो हमने बीडा़
सदा ही बचना चाहा चुनौती से
उन्हीं रास्तों पर फ़िर चले
जिन पर गुजरते रहे हैं आज तक
हम नही बदले है

हर
कहानी कि शुरुआत कि
फ़िर उसी मोड़ पर से
किसी फ़ार्मूला फ़िल्म की तरह
जिसकी हर सीक्वेंस को हर कोई जानता है
चाहे अगली सीट पर बैठा हो या बॉलकनी में
हम नही बदले हैं

हम,
अभी भी देख रहे हैं
दिन में ख़्वाब/
ठोंक रहे हैं खुद की पीठ/
छोटे लक्ष्यों को बड़ा कर रहे हैं/
फ़िर उलझ गये हैं लक्षणों के निदान में
कारकों तक हमारी नज़र पहुँची ही नही
ना पहले ना अब
हम नही बदले हैं
बिल्कुल नही बदले
---------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २७-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : ११.५३ / घर

मातमपुर्सी के दौरान

शनिवार, 1 नवंबर 2008

मंत्रोच्चार,
गूंज रहे है/
वातावरण हवन से शुद्ध हो
सुवासित महक रहा है/
सूतक छूट रहा है
कनाते लगी है, टेंट तना है
पंडि़त भोज ले रहे है
दुःख(जितना भी, जो भी रहा हो) दूर हो रहा है

लोग,
धीर-धीरे आ रहे है
कुछ मातमपुर्सी होती है/
कुछ रोना-धोना
फ़िर बच्चे,
साबित करने लगे में लगे है
अपने आप को
अपनी सेवा का बखान करते
हर आने वालों से
किसने क्या किया/ कौन अस्पताल में रुका
पैसा कितना खर्च हुआ/कितने दिन लगे
तकरीबन, हर बारीक से बारीक
जानकारी परोसी जा रही है करीने से
गोया अम्माँ का जाना ना हुआ
कोई ईवेंट किया हो आर्गेनाईज

वहां,
जो भी मौजूद है
सभी के पास अपने अपने सवाल है
किसी को कितनी देर और लगेगी
किसी को अपने दु:ख सुनाने का मौका नही मिला है
किसी को प्रापर्टी और वसियतनामा तलाशना है
किसी को कार्यक्र्म जल्दी निपटाना है
किसी को अपने घर की फ़िक्र ने जकड़ रखा है
भोजन चल रहा है/
बातें चल रही है/
नेग-टीका हो रहा है/
अम्माँ,
तस्वीर से झांकती इंतजा़र कर रही है
अपनी बारी का कि
कब कोई बना देगा दीवार का हिस्सा उन्हें
कम से कम
बंटवारे तक या यादों के ताजा रहने तक
फ़िर भुला दी जायेगीं
धीरे-धीरे
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मुकेश कुमार तिवारी / दिनांक : २९-ऑक्टोबर-२००८ / समय : दोपहर ०१:३०